नई दिल्ली, सुनील गावस्कर, विवियन रिचर्ड्स को अपना हीरो मानते हुए क्रिकेट खेलने वाला लड़का 90 के दशक में भारत का सबसे बड़ा बल्लेबाज बन चुका था। छह या सात साल की उम्र में केवल मजे के लिए क्रिकेट खेलने की शुरुआत करने वाला यह लड़का बाद में कई खिलाड़ियों का पथ प्रदर्शक बना। 90 का दशक सचिन तेंदुलकर के खेल चरम पर था और फैंस के प्रति उनकी दीवानगी का भी। यह वही दशक था जिसमें 29 अगस्त, 1998 को मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
90 के दशक के सचिन को बनाने में गावस्कर और विव रिचर्ड्स ने जितना प्रभाव छोड़ा था, उससे कहीं ज्यादा असर छोड़ा था 1983 विश्व कप की जीत ने। वह जीत जो कपिल देव की अगुवाई में भारतीय क्रिकेट इतिहास का सबसे आइकोनिक पल है। 11 साल की उम्र में सचिन ने क्रिकेट को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था। इसके बाद क्रिकेट की वह यात्रा शुरू हुई जिसका साक्षी पूरा भारत बना। सचिन ने खुद एक बार बताया था एक बार क्रिकेट में भविष्य बनाना तय करने के बाद उन्होंने किसी और चीज के बारे में नहीं सोचा।
सोचा तो यह भी नहीं गया था कि क्रिकेट का यह सितारा किसी भगवान की तरह पूजा जाएगा। इसलिए सचिन जब यह कहते थे कि मैं बस देश के लिए खेलना चाहता हूं और इसका मैं लुत्फ उठाता हूं। लेकिन सचिन का खेल देखने वालों के लिए यह सिर्फ इतनी बात नहीं थी, इससे बहुत ज्यादा थी। क्योंकि सचिन केवल खिलाड़ी कहां थे, वह क्रिकेट के ‘भगवान’ थे।
सचिन के पास खुद इसका जवाब नहीं कि ऐसा कैसे हुआ। क्रिकेट का ‘भगवान’ इसके पीछे भगवान का ही हाथ मानता है। यह कुछ-कुछ सुपरहीरो जैसा मामला था। 90 के दशक का क्रिकेट बड़ा निराला था। नियमों से बंधा और महान खिलाड़ियों से सजा। सचिन इस जैंटलमैन गेम के बड़े सौम्य खिलाड़ी थे लेकिन उनका खेल ‘बागी’ था। ऐसा खेल जिसने अपने नियम खुद बनाने का सपना देखा। गेंदबाजों को खेलने के तब अपने तरीके थे। सफेद गेंद क्रिकेट में पावरप्ले स्पेशलिस्ट जैसी चीजें नहीं थी। गेंद को मेरिट के हिसाब से खेला जाता था। टेस्ट मैचों का तो मतलब ही पांच दिन तक धैर्य दिखाकर खेल कर ड्रा कराने में भी आनंद लेना था।
यह सब ऐसे था जैसे क्रिकेट रूपी जीवन बड़ी बंदिशों में चल रहा है। जीवन में आई जड़ता को तोड़ने के लिए जैसे ईश्वर के आगमन की उम्मीद रहती है, वैसे ही क्रिकेट में उस भगवान की तरह प्रकट हुए थे सचिन तेंदुलकर। वनडे क्रिकेट में उनका शुरू से आक्रामक अंदाज, टेस्ट क्रिकेट में गेंदों के हिसाब से उनकी धुनाई और इन सब चीजों के बाद भी गजब की निरंतरता। तब यह सब करने की कल्पना एक सुपरहीरो से ही की जा सकती थी। सचिन के गैर परंपरागत अंदाज ठंडी हवा का झोंका नहीं बल्कि अपने आप में एक नया दौर था।
इन सब चीजों के चलते सचिन लोगों के साथ किसी दैवीय शक्ति की तरह ही कनेक्ट हो जाते थे। सचिन ने क्रिकेट को देखना, समझना और खेलना आसान बना दिया। टेस्ट क्रिकेट की क्लास, तकनीक, पेचीदा नियमों से आगे निकल यह खेल पूर्ण मनोरंजन की श्रेणी में आ गया था। आज भारतीय क्रिकेट में सचिन सरीखे स्टाइल वाले कई खिलाड़ी हो सकते हैं लेकिन 90 के दशक में सचिन अकेले थे। जो देखते ही देखते करोड़ों भारतवासियों की उम्मीद बन गई। हमारे सपने उनसे जुड़ गए। वह रन बनाते तो लगता कि हम सफल हो गए। वह जीरो पर आउट होते तो ऐसा लगता जैसे हम फेल हो गए।
इसलिए कई दफा तो टीवी सचिन के आउट होने पर बंद हो जाते थे। क्रिकेट का पर्याय सचिन थे। वह टेस्ट मैचों में मध्यक्रम पर आते थे और वनडे क्रिकेट में ओपनिंग में आकर विपक्षी गेंदबाजी को तहस-नहस कर देते थे। एक बार फिर निरतंरता हमेशा उनके साथ थी। तकनीक बेजोड़ थी ही और मानसिक तौर पर वह अपनी तकनीक से भी मजबूत थे। इस संयोजन ने उन्हें बहुत सफल बनाया। उनके आंकड़े भी बेमिसाल थे। ऑस्ट्रेलिया टीम के महान शेन वॉर्न को तो सचिन सपने में भी धुनाई करते हुए दिखाई देते थे। सर्वकालिक महानतम डोनाल्ड ब्रैडमैन को सचिन में अपना अक्स दिखाई देता था।
यह उपलब्धियां आंकी नहीं जा सकती। भावनाओं के अवॉर्ड भी नहीं होते। 90 के दशक में सचिन ने खेल पर जो छाप छोड़ी उसको पूरी तरह शब्दों में व्यक्त भी नहीं किया जा सकता। इतना कहा जा सकता है उन्होंने अपनी ओर से जो किया वह अतुलनीय था। मास्टर ब्लास्टर को साल 1997 में खेल के क्षेत्र में भारत का सर्वोच्च सम्मान ‘राजीव गांधी खेल रत्न’ पुरस्कार दिया गया था। पुरस्कार की राशि के तौर पर उनको 1 लाख रुपए के साथ एक सम्मान पत्र भी दिया गया। और 29 अगस्त ही वह दिन है जब 1998 को भारत के राष्ट्रपति ने तेंदुलकर को यह अवार्ड दिया था।
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