नई दिल्ली, 27 अगस्त । मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन हिंदी सिनेमा इससे अलग कुछ और नहीं रही। हालांकि इस सब के बीच सिनेमा ने आईने की तरह समाज को उसका स्वरूप भी दिखाया और साथ ही वह संदेश देने में भी कामयाब रही। सिनेमा जब बिना आवाज के थी तो भी यह मनोरंजन का ही जरिया थी। क्रमवार सिनेमा ने अपनी विकास यात्रा में कई नए आयाम जोड़े। सिनेमा के पर्दों पर दृश्य काले-सफेद से रंगीन हो गए।
फिल्में तब भी मनोरंजन का ही जरिया थीं और आज तकनीक के विकास के साथ भी फिल्मों ने अपना स्वरूप जरूर बदला लेकिन वह आज भी एंटरटेनमेंट का साधन ही बनी हुई है। ऐसे में जब सिनेमा में 1960 के दशक में चरम सुखवाद का दौर चल रहा था और 1970 के दशक में एक्शन से भरपूर फिल्में बन रही थी जिसमें अन्याय के खिलाफ नायक का फूटता गुस्सा और बदले की धधकती आग सामान्य लोगों का मनोरंजन कर रही थी। उस सब के बीच एक और दुनिया हिंदी सिनेमा में बसी हुई थी, जहां पर्दे पर आते-जाते दृश्य लोगों को गुदगुदा रहे थे।
जिस फिल्म निर्माता ने उस समय की सिनेमा को लेकर लोगों का नजरिया बदला वह थे ऋषिकेश मुखर्जी। उनका सिनेमाई ब्रह्मांड यथार्थवाद से जुड़ा तो था लेकिन हास्य के साथ इसे पर्दे पर परोसा जा रहा था। फिल्मों में कोई खलनायक नहीं होता, फिल्म के अंत में सारी चीजें आमतौर पर ठीक हो जाती थीं। ऋषिकेश दा की फिल्में देखकर थियेटर से बाहर निकलते दर्शक अपने चेहरे पर केवल हंसी और मजाक लेकर बाहर आते। जबकि बेचारे ऋषिकेश दा खुद डिप्रेशन से बाहर निकलने की जद्दोजहद में लगे थे।
शो मैन राजकपूर से दोस्ती तो ऋषिकेश मुखर्जी की ऐसी कि उन्होंने अपनी दोस्ती के नाम एक फिल्म लिख दी ‘आनंद’ जिसमें राजेश खन्ना राज कपूर के किरदार में पर्दे पर नजर आ रहे थे और दोस्त बने अमिताभ बच्चन ऋषिकेश मुखर्जी का रोल प्ले कर रहे थे। हालांकि इस बारे में ऋषिकेश दा ने नहीं बताया होता तो शायद ही कोई इस बात को जान पाता।
दरअसल फिल्म आनंद से जुड़े कई किस्से हैं जो शायद कम ही लोग जानते होंगे। एक तो ये कि ऋषिकेश दा ने इस फिल्म में राजेश खन्ना वाले किरदार के लिए पहले धर्मेंद्र को कहानी सुनाई और उन्हें यह बता दिया कि यह रोल वही करेंगे लेकिन बाद में धर्मेंद्र को पता चला कि फिल्म की शूटिंग तो राजेश खन्ना के साथ शुरू हो गई है। इसको लेकर धर्मेंद्र ने एक बार एक शो में बताया कि इसके बाद उन्होंने रात में एक-दो टिका ली(रात को शराब पिया) और ऋषि दा को फोन करके परेशान करते रहे वह उनसे पूछते कि मेरा रोल राजेश खन्ना को कैसे दिया और ऋषि दा उनसे कहते कि सो जा धरम सुबह बात करेंगे। फिर ऋषि दा फोन काटते और धर्मेंद्र फिर फोन करते और उनसे यही पूछते। ऐसे उन्होंने रात भर ऋषि दा को सोने नहीं दिया।
वहीं फिल्म के बारे में यह भी कहानी है कि राजेश खन्ना वाले रोल के लिए जब ऋषिकेश दा कलाकार की खोज कर रहे थे निर्माता एन.सी. सिप्पी ने उन्हें किशोर दा का नाम सुझा दिया। ऋषिकेश दा को भी यह सुझाव अच्छा लगा और वह किशोर कुमार से मिलने उनके बंगले की तरफ निकल पड़े। लेकिन, किशोर कुमार को एक बंगाली आदमी ने अपने म्यूजिक कॉन्सर्ट में बुलाकर तय की गई रकम नहीं दी थी जिससे वह खफा थे और अपने बंगले के गार्ड को कह रखा था कि किसी बंगाली को अंदर नहीं आने देना। ऋषिकेश दा जब वहां पहुंचे तो उन्हें गार्ड ने बाहर से ही वापस भेज दिया। ऋषि दा इससे बेहद खफा हुए और उन्होंने किशोर कुमार को फिल्म में लेने का मन बदल दिया। हालांकि इस वाकये के बारे में जब किशोर कुमार ने जाना तो उन्होंने ऋषि दा से माफी भी मांगी थी।
‘गोल माल’, ‘चुपके-चुपके’ जैसी फिल्मों के जरिए लोगों को गुदगुदाने वाले ऋषिकेश मुखर्जी सिनेमा के पर्दे की ऐसी समझ रखते थे कि बॉलीवुड उन्हें इस 70 एमएम के पर्दे का महारथी मानने लगा था।
हिंदी सिनेमा में सबसे ज्यादा हंसाने वाली फिल्म का जिक्र हो तो एक नाम सबके जेहन में आता है और वह है ऋषिकेश दा की ‘गोल माल’ जिसका आइडिया उन्हें डिप्रेशन से मिला था, क्या ऐसा कोई सोच भी सकता है? फिल्म को 40 दिन में तैयार कर लिया गया था। फिल्म के कुछ सीन्स को छोड़ दें तो इस पूरी फिल्म की शूटिंग ऋषिकेश दा के बंगले ‘अनुपमा’ में की गई थी। इससे ठीक पहले अमिताभ बच्चन के साथ ऋषिकेश दा ने फिल्म ‘अलाप’ बनाई थी। इस फिल्म की जमकर तारीफ हुई थी लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फिसड्डी साबित हुई और ऋषिकेश मुखर्जी महीनों तक डिप्रेशन से जूझते रहे।
ऋषिकेश दा को फिल्मी दुनिया के लोग फिल्मों का हेडमास्टर कहने लगे थे। ऋषिकेश दा उस दौर में फिल्में बना रहे थे जब आज की तरफ फिल्मों के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन से उसकी सफलता को नहीं आंका जाता था बल्कि देखा जाता था कि फिल्म लोगों के दिलों तक घर कर रही है कि नहीं। तब की फिल्मों की सफलता का यही एक पैमाना था।
ऋषि दा ने अपने करियर की शुरुआत साल 1957 में आई फिल्म ‘मुसाफिर’ से की थी और हिंदी सिनेमा के दिग्गजों का बता दिया था कि फिल्मों का ‘हेडमास्टर’ आ गया है। वह हिंदी सिनेमा के निर्माता, निर्देशकों और कलाकारों को यह बताने में कामयाब रहे कि कैसे गंभीर विषयों का ताना बाना भी कैसे हल्के-फुल्के और मजाकिया अंदाज में बुना जा सकता है।
1988 ऋषिकेश मुखर्जी की आखिरी फिल्म की बात करें तो इस फिल्म का नाम ‘झूठ बोले कौआ काटे’ था। उन्होंने 5 दशक तक फिल्मों का निर्देशन किया। 27 अगस्त 2006 को उनका निधन 83 साल की उम्र में हो गया। उनकी झोली में फिल्म फेयर, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, दादासाहेब फालके पुरस्कार सहित कई अवॉर्ड थे। इसके साथ ही साल 2001 में उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया था।
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