July 19, 2025
National

स्मृति शेष : इंकलाब की गूंज में खो गया एक सच्चा क्रांतिकारी, जिसे इतिहास ने याद तो किया, पर देश ने नहीं पहचाना

Smriti Shesh: A true revolutionary lost in the echo of the revolution, whom history remembered but the country did not recognize

जब हम भगत सिंह का नाम सुनते हैं, तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। लेकिन, बहुत कम ही लोग जानते हैं कि उस ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की गूंज में एक और आवाज थी, जो उतनी ही बुलंद और प्रभावी थी। नाम था बटुकेश्वर दत्त। भगत सिंह के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाला साथी, असेंबली बम कांड का नायक और ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का सच्चा सिपाही! लेकिन, आज उनकी पुण्यतिथि पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आजाद भारत ने उन्हें वह सम्मान दिया, जिसके वे हकदार थे?

20 जुलाई 1965 को देश की आजादी के लिए अपने जीवन का सब कुछ लुटा देने वाला यह नायक चुपचाप दुनिया से विदा हो गया। न सरकारी सलामी और न ही स्वतंत्र भारत से कोई विशेष मान्यता। वह व्यक्ति जिसने विधानसभा में बम फेंक कर अंग्रेजी हुकूमत को चेताया था, आजाद भारत में घिसटती जिंदगी जीने को मजबूर था। यह कहानी सिर्फ एक क्रांतिकारी की नहीं है। यह उस कड़वे सच की कहानी है, जिसमें देश को जगाने वाले कुछ नायक देश के जमीर से सवाल करते हुए खामोश चले जाते हैं।

साल था 1929 और तारीख थी 8 अप्रैल, जब महज 19 साल की उम्र में बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह के साथ मिलकर दो बम फेंके। इसका उद्देश्य सरकार को यह सुनाना था कि देश के नौजवान जाग चुके हैं। कोई घायल नहीं हुआ, क्योंकि ये बम मारने के लिए नहीं, जगाने के लिए थे। और जब बम गूंजे, तब उनका नारा “इंकलाब जिंदाबाद” भी गूंजा। इसके बाद उन्होंने गिरफ्तारी से भागने का कोई प्रयास नहीं किया। वे चाहते थे कि उन्हें गिरफ्तार किया जाए, ताकि उनके विचार देशभर में गूंजें। अदालत को उन्होंने आंदोलन का मंच बना डाला।

जेल में रहते हुए बटुकेश्वर दत्त ने मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाई। उन्होंने भगत सिंह के साथ मिलकर 114 दिनों की भूख हड़ताल की। वे यह मांग कर रहे थे कि राजनीतिक कैदियों को सम्मान मिले, भोजन समान हो, और पढ़ने के लिए पुस्तकें मिलें। इसके बाद उन्हें आजीवन कारावास हुआ और अंडमान की सेलुलर जेल भेजा गया, वही कालापानी, जिसे सुनते ही आज भी रूह कांप जाती है। वहां उन्होंने दोबारा भूख हड़ताल शुरू की, साथियों के साथ मिलकर पुस्तकालय की मांग की, और पढ़ाई का वातावरण बनाने का प्रयास किया।

साल 1938 में जब वे जेल से रिहा हुए, तब उनका शरीर टूट चुका था। कई गंभीर बीमारियों से जूझते हुए वे फिर से भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे और चार साल के लिए फिर जेल गए। 1947 में देश को आजादी मिली, लेकिन उनका जीवन बदतर हो गया।

पटना में वे कभी सिगरेट कंपनी में एजेंट बने, कभी बिस्किट फैक्ट्री खोली, कभी टूरिस्ट एजेंट बने, लेकिन हर प्रयास विफल रहा। सरकारी कार्यालयों में जब उन्होंने बस परमिट मांगा, तो अफसरों ने उनसे राजनीतिक पीड़ित होने का प्रमाण मांगा। दत्त ने वह अपमानजनक पत्र वहीं फाड़ दिया। उन्होंने कहा कि मैंने देश को आजाद कराने के लिए बम चलाए, अब झूठ बोलकर रोटी नहीं मांगूंगा।

साल 1964 में उनका स्वास्थ्य काफी ज्यादा बिगड़ गया। उन्हें इलाज के लिए पटना के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस बात की जानकारी मिलने के बाद उनके मित्र चमनलाल आजाद ने देश को उनकी चिंताजनक स्थिति के बारे में बताने के लिए अखबार में एक लेख लिखा। उन्होंने सवाल किया कि “जिस व्यक्ति ने देश की खातिर अपनी जान दांव पर लगा दी, वह आज दयनीय हालत में अस्पताल में पड़ा हुआ है। क्या इस महान सेनानी को भारत में जन्म लेना चाहिए था?” यह सवाल पूरे देश को चुभ गया और उनके लेख से हंगामा मच गया।

इस लेख के बाद उस समय के पंजाब के मुख्यमंत्री ने पेशकश की कि अगर बिहार में उनका इलाज संभव नहीं हो पा रहा है तो पंजाब सरकार अपने खर्च पर दिल्ली या पंजाब में उनका इलाज करा सकती है। इसके बाद बिहार सरकार ने संज्ञान लिया और उनका इलाज कराना शुरू किया और उन्हें दिल्ली लाया गया।

दत्त को दिल्ली एम्स लाया गया, जहां उन्हें कैंसर का पता चला। दिल्ली में पत्रकारों से उन्होंने कहा था कि मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंका था, वहीं स्ट्रेचर पर एक अपाहिज की तरह लौटूंगा।

एम्स में जब दत्त को कैंसर का पता चला तो उनके करीबीयों ने दिल्ली में आकर उनसे मुलाकात की। भगत सिंह की माताजी विद्यावती कौर को दत्त से बेहद लगाव था, वह उन्हें खोने के ख्याल से ही विचलित हो उठीं। इसलिए वह थोड़े-थोड़े दिनों में उनसे मिलने दिल्ली आती थीं। अंतिम समय में वह उनके साथ ही थीं, उन्हें दत्त में अपने पुत्र की झलक दिखाई देती थी।

20 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने आखिरी सांस ली। उनकी अंतिम इच्छा थी कि पंजाब के हुसैनीवाला में ही उनका अंतिम संस्कार हो, जहां भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की चिताएं जलायी गई थीं। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उनकी अंतिम इच्छा को पूरा किया। दिल्ली से जब उनका पार्थिव शरीर रवाना हुआ, तो हजारों लोग रास्तों में उमड़ पड़े। देश ने आखिरी बार अपने इस उपेक्षित सपूत को सलाम किया।

लेकिन, बटुकेश्वर दत्त आज भी स्कूली किताबों में सिर्फ एक पंक्ति बनकर रह गए हैं, “भगत सिंह के साथ असेंबली बम कांड में शामिल क्रांतिकारी।”

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