August 27, 2025
National

आनंदमयी मां : करुणा और भक्ति की साक्षात मूर्ति, समाज में आध्यात्मिकता की जगाई ज्योति

Anandmayi Ma: The living embodiment of compassion and devotion, lit the flame of spirituality in the society

गंगा के पावन तट पर बसी कनखल की धरती, जहां साधकों की तपस्या और भक्ति की गूंज अनादिकाल से सुनाई देती है, वहां आनंदमयी मां की स्मृति आज भी श्रद्धालुओं के हृदय में अमर है।

आनंदमयी मां को भक्ति, करुणा और प्रेम की त्रिवेणी कहा जाता है। वो आधुनिक युग की ऐसी संत थीं, जिनका जीवन सादगी और आध्यात्मिकता का अनुपम संगम था।

30 अप्रैल 1896 में तत्कालीन बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के खेउरा गांव में निर्मला सुंदरी के रूप में जन्मीं आनंदमयी मां बचपन से ही ईश्वरीय चेतना से ओतप्रोत थीं। उनकी मां मोक्षदा सुंदरी और पिता बिपिन बिहारी भट्टाचार्य वैष्णव भक्त थे, जिनके भजनों की स्वरलहरियों में निर्मला की आत्मा प्रभु के रंग में रंग गई।

मात्र 13 वर्ष की आयु में रमानी मोहन चक्रवर्ती से उनका विवाह हुआ, किंतु सांसारिक बंधन उनके आध्यात्मिक पथ को न रोक सके। उनके पति उनके प्रथम शिष्य बने, जिन्हें बाद में भोलानाथ के नाम से जाना गया। मां ने उन्हें महाकाली का साक्षात्कार कराया और साधना के मार्ग पर प्रेरित किया।

आनंदमयी मां का जीवन संन्यास का नहीं, अपितु सहज साधना का प्रतीक था। उनकी साक्षी भाव की साधना और करुणा ने हजारों को आकर्षित किया।

मां की शिक्षाओं का सार यह था, “ईश्वर ही एकमात्र प्रिय है, सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठकर शांति प्राप्त करो।”

उत्तराखंड के कनखल, देहरादून, और अल्मोड़ा में उनके आश्रम आज भी शांति और ध्यान के केंद्र हैं। कनखल के आश्रम में जहां 1982 में उन्होंने महासमाधि ली, वह वटवृक्ष आज भी भक्तों को अपनी छांव में बुलाता है।

देहरादून के किशनपुर आश्रम में 27 अगस्त 1982 को मां आनंदमयी ने अपने स्थूल शरीर का त्याग कर ब्रह्मांड में समाहित हो गईं और कनखल के आश्रम में उन्हें महासमाधि प्रदान की गई।

मां के महासमाधि स्थल को मां आनंदमयी महाज्योति पीठम के नाम से जाना जाता है, वहां उनकी मूर्ति स्थापित है। 1 मई 1987 को मां का महासमाधि मंदिर पूर्ण हुआ, जिसका प्रबंधन श्री श्री आनंदमयी संघ द्वारा किया जाता है।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी समेत तमाम बड़ी हस्तियां उनके भक्त थे। आनंदमयी मां का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा आनंद केवल प्रभु की भक्ति और निष्काम कर्म में ही निहित है।

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