नई दिल्ली, 4 अक्टूबर । जब हिंदी साहित्य में नवीनता और मौलिकता की धारा बह रही थी। उसी धारा के प्रवाह में एक ऐसा नाम उभरा जिसने शब्दों को जीवन दिया और भावनाओं को अमर कर दिया। भगवती चरण वर्मा, जो अपने युग की धड़कन को सुनते और अपने साहित्य में जीवन के गहरे अनुभवों को संजोते थे। उनका लेखन, चाहे वह उपन्यास हो या काव्य, समाज की सच्चाइयों का आईना था।
एक कवि की जिंदगी खुद के साथ बड़ी तल्लीनता से गुजरती है और एक कहानीकार समाज में बिखरे जीवन के विभिन्न पहलुओं को कागज पर कलम के जरिए समेटना चाहता है। भगवती चरण वर्मा का साहित्य किसी एक विधा में सीमित नहीं था। वह बचपन से ही खुद को एक कलाकार मानते थे। कला की कोई सीमा नहीं होती। उनका कहना था, “मैं तो एक कवि था, जो बाद में कहानी लेखक बन गया। मुझ पर विशंभर नाथ कौशिक का बड़ा प्रभाव था जिनको मैं अपना पथ प्रदर्शक मानता था।”
30 अगस्त, 1903 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में उनका जन्म हुआ था और बचपन कानपुर में बीता था। 1908 में ही पिता की मौत प्लेग से हो गई थी। पिता के बाद मां और ताऊ ने शिक्षा में आगे बढ़ाने का काम किया था। 1923 में भगवती चरण वर्मा की शादी हो गई थी और 1928 तक प्रयाग विश्वविद्यालय से एलएलबी करके वह वकील बन चुके थे। उनका बचपन बड़ा मुश्किल लगता है और वह था भी। लेकिन विद्यार्थी जीवन में वह खुद को अलग ही मौज में पाते थे। वह अध्ययन में नहीं, बल्कि खुद की मौज में अधिक खोए हुए थे।
वह खुद को घर की जमा पूंजी को उड़ाने वाले एक ऐसे बेफिक्र युवा के तौर पर आंकते थे जो एलएलबी तक पहुंचते-पहुंचते अभावों को भी देखना शुरू कर चुका था। उन्होंने इस दौरान हिंदी साहित्य के वार्षिक अधिवेशनों में सक्रिय भागीदारी शुरू कर दी थी। आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए 1933 में ‘मधुकण’ नाम की काव्य रचना की थी। लेकिन, उसी साल उनकी पत्नी का भी निधन हो गया था। जीवन के बड़े उतार-चढ़ाव भरे दिनों में, अगले ही साल 1934 में ‘चित्रलेखा’ उपन्यास ने भगवती चरण वर्मा को जबरदस्त प्रसिद्धी दी।
जीवन, पाप, पुण्य, और नैतिकता के गहरे दार्शनिक प्रश्नों पर आधारित यह उपन्यास हिंदी साहित्य की कालजयी कृति बन गया। इसके पात्रों के माध्यम से प्रेम, वासना, और त्याग के जटिल मानवीय पहलुओं का चित्रण किया है। उपन्यास की खासियत इसका दार्शनिक दृष्टिकोण और गहन संवाद है। “चित्रलेखा” आज भी विचारोत्तेजक और प्रासंगिक रचना मानी जाती है।
भगवती चरण वर्मा ने 1942 में मुंबई में कथा लेखक और संवाद लेखक के तौर पर बॉम्बे टाकीज में भी काम किया। फिल्मी जगत अक्सर कलाकारों की अंतिम मंजिल होती है। वहां शोहरत भी मिलती है और दौलत भी। लेकिन भगवती चरण वहां केवल दौलत के लिए गए थे। उन्होंने कहा था, “संवाद लेखक की हैसियत से ख्याति प्राप्त करने के लिए मैंने फिल्मी दुनिया में प्रवेश नहीं किया था, मैं तो आर्थिक संकट से छुटकारा पाने के लिए वहां गया था।”
लेकिन मायानगरी में मन नहीं रमा तो वहां से लौटकर लखनऊ में दैनिक नवजीवन में संपादक के तौर पर काम करने लगे। फिर 1950 से 1957 तक आकाशवाणी में हिंदी सलाहकार रहे। फिर वहां से भी नौकरी छोड़ दी और दिल्ली से लखनऊ आकर जीवन पर्यन्त वहीं रहे।
भगवती चरण वर्मा की रचनाएं युगीन विसंगतियों पर मार्मिक प्रहार करती थी। वह नवयुग के सृजन की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करती थी। जैसे 1959 में उनके उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र’ मुंशी शिवलाल के परिवार की चार पीढ़ियों की कहानी है, जो 1880 से 1930 तक के दौर के सामाजिक बदलाव को दर्शाती है। आज हम कामकाज में आए बदलाव के चलते जिस एकल परिवार को आधुनिक जीवन की एक विशेषता के तौर पर देखते हैं, वह तब ‘भूले बिसरे चित्र’ में दिख चुकी थी, जिसमें अंग्रेजों की गुलामी, नए तरह के रोजगार, पूंजीवाद के आगमन और संयुक्त परिवार के विघटन की कहानी हमारे जेहन पर छप जाती है। इसके लिए उन्हें 1961 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।
भगवती चरण वर्मा का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में बखूबी झलकता है। ‘चित्रलेखा’ की नायिका जीवन को एक हलचल मानती है। लगातार कर्म करने में यकीन करती है। उपन्यास ‘टेढ़े मेढ़े रास्ते’ का रामनाथ तिवारी, ‘रेखा’ उपन्यास में प्रभाशंकर, ‘सामर्थ्य और सीमा’ में मेजर नाहर सिंह एवं ‘सबहि नचावत राम गोसाई’ उपन्यास का जग्गा पुनर्जन्म की आस्था को स्वीकार करते हैं। भगवती चरण वर्मा की भी पुनर्जन्म में आस्था थी और इसे वह क्रिया प्रतिक्रिया के सिद्धांत के साथ जोड़कर देखते थे। मानववादी दृष्टिकोण की उनकी एक कविता ‘भैंसा गाड़ी’ बड़ी लोकप्रिय हुई थी।
उनका लेखन वैयक्तिक था जिसने जड़ परंपराओं, अंधविश्वासों और रूढ़ियों को मान्यता देने से इंकार कर दिया। वह वर्तमान को पूरी सार्थकता और उल्लास के साथ जीना चाहते थे। यहां तक कि उनका भोगवादी दर्शन भी त्याग की भावना को समेटे हुए था। कर्म उनकी आस्था थी। हां, नियति में उनका जरूर कुछ यकीन था। कुछ-कुछ उनकी कविता की इन लाइनों की तरह- “यह अपना-अपना भाग्य मिला, अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें। जग की लघुता का ज्ञान मुझे, अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें। जिस विधि ने था संयोग रचा, उसने ही रचा वियोग प्रिये…..5 अक्टूबर, 1981 को पद्मभूषण से सम्मानित महान हिंदी साहित्यकार के शरीर का हमेशा के लिए संसार से वियोग हो गया था।
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