बिहार के किशनगंज जिले की ठाकुरगंज विधानसभा सीट, जो नेपाल सीमा से सटी हुई है, हमेशा से बिहार की राजनीति में खास महत्व रखती है। यह सीट किशनगंज लोकसभा क्षेत्र की छह विधानसभा सीटों में से एक है और अपनी सामाजिक विविधता के कारण हर चुनाव में नए राजनीतिक समीकरण गढ़ती है। यहां किसी भी दल का स्थायी दबदबा नहीं रहा, यही वजह है कि ठाकुरगंज राजनीतिक विश्लेषकों और कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती है।
पिछले विधानसभा चुनाव में राजद सउद आलम ने 79,354 वोट पाकर जीत हासिल की थी। कृषि से जुड़े सउद आलम के पास करीब 63 लाख रुपए की संपत्ति है और उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं है। साफ छवि और स्थानीय जुड़ाव के कारण उन्होंने यहां मजबूत पकड़ बनाई।
पिछले पांच चुनावों पर नजर डालें तो समीकरण लगातार बदलते रहे हैं। फरवरी 2005 में कांग्रेस के डॉ. मोहम्मद जावेद, अक्टूबर 2005 में सपा के गोपाल कुमार अग्रवाल, 2010 में लोजपा के नौशाद आलम, 2015 में जेडीयू के नौशाद आलम और 2020 में राजद के सउद आलम ने जीत दर्ज की। यह ट्रेंड बताता है कि ठाकुरगंज में मतदाता हर बार नए नेता को मौका देते हैं।
ठाकुरगंज में गांवों की संख्या ज्यादा है। महानंदा, मेची व कनकई नदियां यहां से बहती हैं। केले और चाय की खेती अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह इलाका खास है। महाभारत काल से जुड़े कई स्थान यहां मौजूद हैं। 1897 में खुदाई के दौरान भगवान शिव और मां पार्वती की मूर्तियां मिली थीं, जो इसके प्राचीन धार्मिक महत्व को दर्शाती हैं।
इस सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की आबादी अच्छी खासी है, जो हार-जीत में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जातिगत समीकरण के साथ मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हर दल की चुनावी रणनीति में अहम रहता है।
2024 के आंकड़ों के अनुसार, ठाकुरगंज विधानसभा क्षेत्र की अनुमानित जनसंख्या 504045 है, जिनमें 256450 पुरुष और 247595 महिलाएं शामिल हैं। इस सीट पर कुल 314069 मतदाता हैं, जिनमें 162635 पुरुष, 151428 महिला और 6 थर्ड जेंडर हैं।
इस बार ठाकुरगंज में बीजेपी, जेडीयू, एलजेपी और राजद-कांग्रेस गठबंधन के बीच कड़ा मुकाबला होने की संभावना है। इतिहास बताता है कि यहां का मतदाता बदलाव पसंद करता है, लेकिन इस बार का नतीजा काफी हद तक मुस्लिम मतदाताओं की एकजुटता और उम्मीदवार की स्थानीय लोकप्रियता पर निर्भर करेगा।
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