नई दिल्ली, 8 फरवरी । दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी में ट्रायल कोर्ट को आपराधिक मामलों में ट्रायल-पूर्व चरण में शिकायतकर्ता या पीड़ित को नोटिस जारी करने का आदेश देने से इनकार कर दिया है।
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह के निर्देश से मुकदमों में अनावश्यक देरी हो सकती है और त्वरित न्याय वितरण का उद्देश्य कमजोर हो सकता है।
पीठ ने कहा कि ऐसा कोई वैधानिक आदेश नहीं है जिसके तहत आपराधिक अदालतों को सुनवाई से पहले के चरण में शिकायतकर्ताओं या पीड़ितों को सूचित करने की आवश्यकता हो।
वकील विवेक कुमार गौरव द्वारा प्रस्तुत याचिका को खारिज करते हुए, जिसमें शिकायतकर्ताओं को ट्रायल-पूर्व और ट्रायल के चरणों में अनिवार्य नोटिस देने की मांग की गई थी, अदालत ने इस तरह के प्रस्ताव को आपराधिक कार्यवाही की दक्षता के लिए संभावित रूप से हानिकारक माना।
जनहित याचिका में शिकायतकर्ताओं के लिए आरोप पत्रों की मुफ्त प्रतियों की भी मांग की गई थी। पीठ ने कहा कि दिल्ली उच्च न्यायालय के नियम पहले से ही विशिष्ट परिस्थितियों में मुफ्त प्रतियों सहित केस रिकॉर्ड प्राप्त करने के लिए रास्ते प्रदान करते हैं।
इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) को लागू करने का निर्देश दिया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यौन अपराधों के पीड़ितों को मुफ्त में आरोप पत्र मिले।
याचिका का निपटारा करते हुए अदालत ने जगजीत सिंह बनाम आशीष मिश्रा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए शिकायतकर्ता के ट्रायल-पूर्व कार्यवाही में सुनवाई के अधिकार की मान्यता पर गौर किया।
शीर्ष अदालत ने निष्पक्ष और न्यायसंगत उपचार सुनिश्चित करने, आपराधिक कार्यवाही में प्रभावी ढंग से भाग लेने के पीड़ितों के अधिकार की पुष्टि की थी।
नतीजतन, इस अदालत ने मौजूदा वैधानिक तंत्र और न्यायिक मिसालों को आपराधिक मामलों में पीड़ितों और शिकायतकर्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त पाया।
इसने आगे के निर्देशों को अनावश्यक माना, क्योंकि कानूनी ढांचे के भीतर पर्याप्त प्रावधान पहले से ही मौजूद हैं।