नई दिल्ली, 30 अगस्त । ‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए, बाकी जो बचा था काले चोर ले गए’ आपने अपने घरों में भी इस गीत को गाते-गुनगुनाते बच्चों को सुना होगा। आपको पता है इस गीत को किसने लिखा? शायद नहीं! तो हम आपको बता दें कि बच्चों के लिए जिनकी कलम से ये मोती नुमा उद्गार निकलकर पन्नों पर आए उनका नाम था शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र। हां, वही गीतकार शैलेंद्र जिन्होंने, प्रेम, विरह और संघर्ष के साथ सामाजिक जीवन को दर्शाते कई ऐसे गीत लिखे जो आज भी लोगों की जुबां पर है। मानवता शैलेंद्र के गीतों के केंद्र में रही और वह गीतों के जरिए ही समाज को बदलने का प्रयास करते रहे। उन्होंने अपने गीतों में प्रेम और अध्यात्म दोनों का तड़का लगाकर हमारे सामने परोस दिया।
एक देशभक्त कवि जिसकी कलम आजादी के संघर्ष के दौरान देशभक्ति से ओतप्रोत होकर वीर रस की कविताएं उगल रही थी। आखिर वह अचानक से दर्द, विरह और प्रेम के साथ अध्यात्म से भरे गीत कैसे लिखने लगा यह विषय लोगों को हमेशा कुरेदता रहा। बात आजादी के साल की है, राज कपूर एक कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र को पढ़ते देख इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शैलेंद्र से फिल्म ‘आग’ के लिए गाना लिखने को कहा लेकिन उन्होंने राज कपूर को तब साफ मना कर दिया।
इसके बाद शैलेंद्र को वह बुरा दौर भी देखना पड़ा जब उनके लिए घर चलाना मुश्किल हो रहा था। आमदनी इतनी कम थी कि खाने के लाले पड़ रहे थे। ऐसे में शैलेंद्र ने फैसला किया कि वह राज कपूर से मिलेंगे और वह उनसे मिलने के लिए घर से निकले तो काले बादल उमड़-घुमड़ कर उनका रास्ता रोकने लगे, तेज बारिश होने लगी। लेकिन, राज कपूर से मिलने की मन में ठानकर निकले शैलेंद्र का रास्ता वह घनघोर बारिश भी नहीं रोक पा रही थी। वह बढ़ते गए और भीगते भी गए तब उनके होंठों पर शब्द थे “बरसात में हम से मिले तुम सजन, तुम से मिले हम, बरसात में” फिर क्या था अनायास ही बरसात फिल्म के टाइटिल गीत को शैलेंद्र की कलम ने ऐसे जन्म दे दिया। फिर क्या था राजकपूर और शैलेन्द्र की दोस्ती शुरू हुई और उनका फ़िल्मी दुनियां का सफर यहीं से शुरू हुआ। साथ ही हिंदी सिनेमा में शीर्षक गीत लिखने की परंपरा भी यहीं से शुरू हुई।
गानों में खांटी हिंदी शब्दों का प्रयोग यही तो शैलेंद्र की खासियत थी। 30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी, पाकिस्तान में जन्मे शंकरदास केसरीलाल शैलेंद्र ने मुंबई में 14 दिसंबर 1966 को अंतिम सांस ली। 43 साल की उम्र में संगीत जगत को रुसवा कर चले जाने वाले इस गीतकार के गीतों में आम आदमी की आवाज थी।
फिल्म तीसरी कसम का एक गाना ‘पान खाए सैयां हमारो, सांवली सुरतिया होंठ लाल-लाल’ इस गाने को जब भी किसी ने सुना कोई इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहा था कि यह शैलेंद्र के कलम की उपज है। उनके बारे में कहा जाता था कि वह कभी भी धन कमाने की लालसा से फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखते थे। एक बार तो ‘श्री 420’ फिल्म के एक लोकप्रिय गीत – ‘प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूं डरता है दिल’ के अंतरे की एक पंक्ति को लेकर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति जता दी। दरअसल उन्होंने इस गीत के अंतरे में एक लाइन लिखी थी ‘रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियां’ संगीतकार जयकिशन को आपत्ति थी कि लोग चार दिशाओं के बारे में तो जानते हैं ये दसों दिशाएं क्या हैं लेकिन, शैलेंद्र इसमें इस अंतरे की लाइन को बदलने के लिए तैयार नहीं हुए ।
फिल्म तीसरी कसम का निर्माण जब शैलेंद्र कर रहे थे तो वह स्पष्ट तौर पर कह चुके थे कि वह किताब की मूल भावना से नहीं खेलेंगे और जस के तस उन्होंने इसकी कहानी को पर्दे पर उतार दिया। ‘तू प्यार का सागर है’ रचने वाले शैलेंद्र की कलम ने ही जुल्म के खिलाफ एक टैगलाइन रच डाली जिसे आज भी आंदोलनों में दोहराते हुए सुनते हैं, ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’।
उस जमाने में शैलेंद्र के गीत देश की सरहद को पार कर रूस में भी लोगों की जुबान पर चढ़ गए ‘आवारा हूं’ तब से लेकर अब तक वहां लोग गुनगुनाते हैं। तकरीबन 15 देशों ने इस गीत का अपनी भाषा में अनुवाद कराया। लेकिन, शैलेंद्र के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि नौकरी छोड़ने के बाद अगर रोजी-रोटी का संकट न आया होता तो वे फिल्मों के लिए शायद न लिखते। पाकिस्तान के रावलपिंडी में पैदा हुए इस गीतकार का बचपन मथुरा में बीता क्योंकि उनके जन्म के बाद उनका परिवार यहां आकर बस गया। दरअसल उनके दोनों ही मिट्टी से जुड़े होने की सच्चाई से अलग एक सच्चाई यह भी है कि शैलेंद्र का परिवार बिहार के भोजपुर इलाके से संबंध रखता था। हालांकि आजीविका के संघर्ष ने उनके परिवार को रावलपिंडी और वहां से फिर मथुरा लाकर पटक दिया था।
शैलेंद्र ने रेलवे में नौकरी शुरू की लेकिन उनका मन दो समानांतर पटरियों पर दौड़ते चले जा रहे रेल के डिब्बों के शोर के बीच नहीं रमता था, वह तो कलम से कागज पर शब्दों की वह लकीर खींचना चाहते थे जिसे लोगों के दिलों में जगह मिले। शैलेंद्र जब फिल्मी दुनिया में कदम रख रहे थे तो हिंदी फिल्मों के गीत उर्दू के जटिल प्रतीकों से बंधे पड़े थे। शैलेंद्र ने हिंदी सिनेमा के गीतों को इससे आजाद किया और खांटी हिंदी में गीतों की रचना शुरू की और यह लोगों को बेहद पसंद आई।
शैलेंद्र के गीतों में जादूगरी देखिए कि वह ‘आवारा’, ‘अनाड़ी’, ‘तीसरी कसम’ में जीवन का फलसफा लिखते हैं। वहीं ‘संगम’, ‘यहूदी’ में वह मोहब्बत की तकलीफ को बयां करते नजर आते हैं। ‘श्री 420’, ‘मधुमती’, ‘गाइड’ में शैलेंद्र प्रेम का इजहार करते हैं। ‘बूट पॉलिश’ में शैलेंद्र की कलम बच्चों के लिए गीत रचती है तो वहीं ‘छोटी बहन’ में शैलेन्द्र भाई और बहन के रिश्तों को शब्दों में ढालने में कामयाब होते हैं। शैलेन्द्र ‘तीसरी कसम’ में लोकभाषा का इस्तेमाल अपने गीतों और फिल्म की कहानी में करते हैं तो वहीं ‘मेरा नाम जोकर’ में भावनात्मक गीत लिख डालते हैं।
फिल्म ‘तीसरी कसम’ की असफलता ने हमारे बीच से भारतीय सिनेमा का यह चमकता सितारा हमेशा के लिए छीन लिया। इस फिल्म में उन्होंने अपनी बहुत सारी कमाई लगा दी थी और फिल्म के फ्लॉप होने के बाद उन्हें हार्ट अटैक आया और वह दुनिया को अलविदा कह गए। ‘दिल का हाल’ सुनाने वाला यह दिलवाला भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन, उनके लिखे गीत जिंदगी-जिंदगानी लोगों को याद रहेंगे।
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