N1Live National मौलिक कर्तव्य पांडित्य नहीं, सामाजिक परिवर्तन की कुंजी है : प्रधान न्यायाधीश
National

मौलिक कर्तव्य पांडित्य नहीं, सामाजिक परिवर्तन की कुंजी है : प्रधान न्यायाधीश

Chief Justice of India Justice NV Ramana addresses at the inaugural session of International Arbitration and Mediation Centre (IAMC) Hyderabad Curtain Raiser Conclave in Hyderabad

 

Chief Justice of India N.V. Ramana.

नई दिल्ली, प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना ने सोमवार को कहा कि मौलिक कर्तव्य पांडित्य या तकनीकी चीज नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की कुंजी है, इसलिए इसे संविधान में शामिल किया गया, क्योंकि संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की थी, जहां नागरिक जागरूक, सतर्क और सही निर्णय लेने में सक्षम हैं। प्रधान न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) द्वारा स्वतंत्रता की 76वीं वर्षगांठ पर आयोजित समारोह में बोल रहे थे। इस समारोह में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, एससीबीए अध्यक्ष विकास सिंह, सुप्रीम कोर्ट के जज और बार के सदस्य भी शामिल हुए।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “हमारा संविधान मौलिक दस्तावेज है जो नागरिकों और सरकार के बीच संबंधों को नियंत्रित करता है। हालांकि इसने हमें अपरिवर्तनीय अधिकार दिए हैं और हमारे लिए कुछ मौलिक कर्तव्य भी तय किए हैं।”

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि समाज में सार्थक योगदान देने के लिए नागरिकों को पहले संविधान और उसके अंगों को समझना होगा। उन्होंने कहा, “लोगों के लिए व्यवस्था और इसकी बारीकियों, शक्तियों और सीमाओं को समझना अनिवार्य है। इसलिए मैं भारत में संवैधानिक संस्कृति को फैलाने के लिए बहुत उत्सुक हूं।”

जस्टिस रमना ने कहा कि स्वतंत्रता का संघर्ष केवल औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति के लिए नहीं था। यह सभी की गरिमा के लिए था। यह लोकतंत्र की नींव रखने के लिए था। यह नींव संविधान सभा में वर्षो के विस्तृत विचार-विमर्श के माध्यम से रखी गई थी और इसी ने हमें सबसे प्रगतिशील और वैज्ञानिक दस्तावेज, यानी भारत का संविधान दिया।

उन्होंने कहा कि संवैधानिक ढांचे के तहत, प्रत्येक अंग को एक अद्वितीय दायित्व दिया गया है और यह भ्रांति कि न्याय केवल अदालत की जिम्मेदारी है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 द्वारा दूर किया गया।

रमना ने कहा, “शासन के प्रत्येक अंग का प्रत्येक कार्य संविधान की भावना में होना चाहिए। हमें ध्यान देना चाहिए कि शासन के सभी तीन अंग, यानी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका संवैधानिक विश्वास के भंडार हैं।”

उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायपालिका ने अपनी स्थापना के समय से ही संवैधानिक आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया है और व्याख्यात्मक अभ्यास के माध्यम से विभिन्न स्वतंत्र संस्थानों को भी मजबूत किया है, चाहे वह चुनाव आयोग हो या सीवीसी या सीएजी।

न्यायमूर्ति रमना ने कहा, “विधियों की व्याख्या करके अदालतों ने विधायिका के वास्तविक इरादे को प्रभावित किया है। अदालतों ने कानूनों को समकालीन समय के लिए प्रासंगिक बनाकर जीवन में सांस ली है।”

उन्होंने आगे कहा कि देश की न्यायिक प्रणाली न केवल लिखित संविधान और उसकी भावना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण अद्वितीय है, बल्कि व्यवस्था में लोगों द्वारा व्यक्त अपार विश्वास के कारण भी अद्वितीय है। उन्होंने कहा कि लोगों को भरोसा है कि उन्हें न्यायपालिका से राहत और न्याय मिलेगा और यह उन्हें विवाद को आगे बढ़ाने की ताकत देता है और वे जानते हैं कि जब उनके साथ कुछ गलत होगा, तो न्यायपालिका उनके साथ खड़ी होगी।

उन्होंने कहा, “भारतीय सर्वोच्च न्यायालय दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में संविधान का संरक्षक है। संविधान सर्वोच्च न्यायालय को पूर्ण न्याय करने के लिए व्यापक शक्तियां और अधिकार क्षेत्र देता है। अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय करने की यह शक्ति जीवन में लाती है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का आदर्श वाक्य- यतो धर्म स्थिरो जय है, अर्थात जहां धर्म है, वहां विजय है।

न्यायमूर्ति रमना ने कहा, “हालांकि मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता को बनाए रखना संवैधानिक अदालतों का जनादेश है, वहीं वकील अदालतों को सही दिशा में ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।”

उन्होंने कहा, “वह प्रत्येक नागरिक से हमारे लोकतंत्र में एक सार्थक हितधारक बनने का आग्रह करते हैं। हम सभी को संवैधानिक दर्शन को उसकी वास्तविक भावना में आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए। आज जब मैं अपने घर के ऊपर तिरंगा फहराता देखता हूं, तो गर्व महसूस करता हूं और कीर्तिसेशुलु श्री पिंगली वेंकय्या गारू को याद करता हूं, जो तेलुगू भूमि से थे। यह वह भूमि है, जहां स्वतंत्र भारत के गौरव और पहचान, हमारे राष्ट्रीय ध्वज को डिजाइन किया गया।”

Exit mobile version