नई दिल्ली, 21 अगस्त । बचपन में अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी आवाज बुलंद की कि डॉक्टर ने कड़वी दवाई को मीठा करने के लिए उसमें चीनी मिलाई तो दवा खानी ही छोड़ दी। यरवदा जेल में बापू ने कह दिया कि तुमने मुझसे झूठ बोला, धोखा दिया और पपीता खिलाया तो इन्होंने कसम खा ली कि ताउम्र पपीता नहीं खाउंगा। मीठे से दूरी के बाद भी जिनकी कलम साहित्य रचना के समय मिठास से भरी रही। उनकी साहित्यिक भाषा और शैली ओजस्वी थी क्योंकि उन्हें पराधीनता रास नहीं आती थी। अपने निबंधों को जिन्होंने हमेशा व्याख्यात्मक शैली में लिखा और कुछ रचनाएं तो ऐसी जिसमें उन्होंने विचारक के तौर पर उपदेशात्मक शैली के दर्शन कराए।
आजादी जिनके दिलो-दिमाग पर हावी थी। अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़े भारत में गुलामी की वजह से उनकी सांसें अटकती रही। ऐसे थे काका कालेलकर जिनको आजाद भारत के इतिहास में भी कई सारे ऐसे प्रयोगों के लिए जाना जाता है जिसके लिए ये देश सदा उनका ऋणी रहेगा।
महाराष्ट्र के सतारा में जन्मे काका कालेलकर भले मराठी थे और कई साहित्यों की रचना मराठी भाषा की लेकिन वह ऐसे साहित्यकारों में भी गिने गए जिन्होंने अहिन्दी भाषी क्षेत्र का होने के बाद भी हिंदी सीखकर उसमें लिखना प्रारंभ किया और उनके साहित्य को लोगों ने सीने से लगा लिया। वह उस दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार का कार्य करते रहे जहां अभी भी हिंदी को लेकर एक हीन भावना लोगों के मन में है। मराठी होने के बाद भी हिंदी और गुजराती में उन्होंने कई मौलिक रचनाएं लिखीं।
भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, पत्रकार और लेखक काका कालेलकर भले गांधी जी के अनुयायी थे लेकिन वह देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संघर्ष के बड़े समर्थकों में से एक थे। आचार्य बिनोवा भावे के साथ उनकी दोस्ती किसी से छुपी नहीं थी। दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर से काका कालेलकर तक का उनका सफर बड़ा ही रोचक था। पढ़-लिखकर एक शिक्षक के तौर पर अपना जीवन शुरू करने वाले दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर देश की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष कर रहे युवाओं का समर्थन करते रहे। वह देश की आजादी के लिए ही नहीं सोचते बल्कि खुद भी सांसारिक-मोह माया से मुक्त होने की भावना दिल में रखते थे और मोक्ष की खोज में हिमालय की ओर निकल पड़े थे। उन्होंने 2500 मील की पैदल यात्रा की थी।
1915 में शांति निकेतन पहुंचे तो उनकी मुलाकात यहां बापू से हो गई। फिर क्या था काका ने अपना जीवन क्रांति से हटकर शांति के लिए समर्पित कर दिया और गांधी जी को छत्रछाया में आ बैठे। वह 5 वर्ष तक अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़े जेल में भी रहे।
देश आजाद हुआ तो वह 1952 से लेकर 1964 तक संसद के सदस्य भी रहे। 1964 में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया। आजादी के बाद देशभर के कई बड़े संस्थान जैसे ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’, ‘बेसिक एजुकेशन बोर्ड’, ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’, ‘गांधी विचार परिषद’ के अध्यक्ष तथा ‘गांधी स्मारक संग्रहालय’ के निदेशक रहे। 21 अगस्त, 1981 को नई दिल्ली में आचार्य काकासाहेब कालेलकर का ‘संनिधि’ आश्रम में निधन हुआ।
जब आजादी के बाद देश में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की मांग उठी तो 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पिछड़े वर्गों के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया। आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। लेकिन, इस आयोग की सिफारिश को कई खामियों के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।