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हसरत मोहनी के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के प्रस्ताव को गांधीजी ने दिया आंदोलन का रूप

नई दिल्ली, आजादी के 75वें साल पर हम आपके लिए उन लोगों की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। ऐसी ही एक शख्सियत है हसरत मोहनी जिनका जन्म 1875 में ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रांत के उन्नाव जिले के शहर मोहान में हुआ। उनका पूरा नाम सैयद फजल-उल-हसन था। उन्होंने ही 1921 में पहली बार कांग्रेस में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा, वहीं विदेशी वस्तुओं के बहिस्कार करने का प्रस्ताव भी उन्होंने पहले रखा, जिसे आगे चलकर आंदोलन का रूप गांधी जी ने दिया।

हसरत उनका कलम नाम (तखल्लुस) था जिसे उन्होंने अपनी उर्दू कविता में इस्तेमाल किया था, जबकि उनका अंतिम नाम ‘मोहानी’ उनके जन्मस्थान मोहान को दर्शाता है। हसरत मोहानी ने आरंभिक तालीम घर पर ही हासिल की और 1903 में अलीगढ़ से बीए किया।

1904 में वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 1905 में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक द्वारा चलाए गए स्वदेशी तहरीकों में भी हिस्सा लिया। 1919 के खिलाफत आन्दोलन में उन्होंने चढ़ बढ़ कर हिस्सा लिया। 1921 में उन्होंने सर्वप्रथम इन्कलाब जि़दांबाद का नारा अपने कलम से लिखा, जिसे बाद में भगत सिंह ने मशहूर किया। उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1921) में हिस्सा लिया था।

दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए प्रोफेसर अजय तिवारी ने बताया कि, हसरत मोहानी ने 1921 में पहली बार कांग्रेस में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव रखा था, जिसका महात्मा गांधी ने विरोध किया था। हसरत मोहानी, गांधी जी के सहयोगी थे लेकिन गांधी जी से उनका वैचारिक टकराव भी था। वहीं महात्मा गांधी ने खद्दर आंदोलन चलाया जिसका मोहानी ने विरोध किया। उनका मानना था कि स्वदेशी उद्योग बर्बाद होगा और इससे मजदूरों पर गाज गिरेगी।

इसके अलावा विदेशी वस्तुओं का बहिस्कार करने के बारे में प्रस्ताव रखा जिसको बाद में गांधी जी ने स्वीकार किया और 10 साल बाद स्वदेशी आंदोलन चलाया। खुद गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है और लिखा कि, मोहानी की जिद के कारण मजबूर होकर असहयोग आंदोलन को स्वदेशी आंदोलन में शामिल करने के लिए मुझे मजबूर होना पड़ा।

हसरत मोहानी के बारे में कहा जाता है कि, जब वह अलीगढ़ में पढ़ने गए तो वहां के चलन का पाजामा नहीं पहनते थे, वह सामन्य कुर्ता पहनते थे और पानदान हाथ में लेकर चलते थे। वह शायरी भी करते थे। उनके पहनावे और जिस तरह वह चलते थे, उनसे अलीगढ़ के रूढ़ीवादी लोग नाराज रहते थे। मोहानी एक अखबार (उर्दू-ए-मुअल्ला) निकालने लगे, उसमें आजादी के लिए छापा करते थे तो अंग्रेज नाराज हो गए और उनपर 3 हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया।

मोहानी ने जुर्माना भरने के लिए जब अपनी प्रॉपर्टी चैक कराई तो उनपर कुछ नहीं था। कुल सामान मात्र 50 रुपये का था। इस कारण वह जेल चले गए और दूसरी गतिविधियों में शामिल हो गए। जेल से छूटने के बाद फिर अंग्रेजों के खिलाफ लिखते रहे और जेल बार-बार जाते रहे।

हसरत मोहानी कट्टरपंथी लोगों का विरोध किया करते थे चाहे वह किसी भी धर्म का हो। वह सेकुलर थे और स्वाधीनता आंदोलन में इस तरह के लोग कम थे। वहीं अलीगढ़ में रहकर सर सैयद के विचारों का विरोध करते थे, जो कि मामूली बात नहीं थी।

1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का सदस्य चुना गया। 1947 के भारत विभाजन का उन्होंने विरोध किया और हिन्दुस्तान में रहना पसंद किया। मौलाना हसरत मोहानी का निधन 13 मई 1951 को लखनऊ में हुआ था।

मोहम्मद शोएब खान –आईएएनएस

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