सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने 10 बार अवतार लिया। भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन के दौरान कछुए बनकर सृष्टि का उद्धार किया तो राक्षसों का वध करने के लिए मत्सय अवतार लिया। भगवान विष्णु के अलग-अलग रूपों को देश भर में पूजा जाता है, लेकिन असम में भगवान विष्णु एक अनोखे रूप में विराजमान हैं, जहां उनका सिर घोड़े का और नीचे का हिस्सा मानव शरीर का है। यह मंदिर हिंदुओं की आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि बौद्ध धर्म के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।
असम के हाजो की हरी-भरी पहाड़ियों के बीच भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार को समर्पित हयग्रीव माधव मंदिर है, जिसे 100 साल से भी पुराना बताया जाता है। यह प्राचीन मंदिर हिंदू और बौद्ध दोनों के लिए असीम आध्यात्मिक महत्व रखता है और तीर्थयात्रियों और यात्रियों को समान रूप से आकर्षित करता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदू धर्म के लोगों का मानना है कि यहां भगवान ने मधु और कैटव नाम के राक्षस को मारने के लिए हयग्रीव अवतार लिया था। मधु और कैटव नाम के राक्षसों की उत्पत्ति भगवान विष्णु के कानों की गदंगी से हुई थी, जबकि बौद्ध धर्म के लोगों का मानना है कि इसी स्थान पर महात्मा बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था।
यही कारण है कि मंदिर दोनों धर्मों के लोगों के लिए आस्था का केंद्र है।
मंदिर में सदियों से एक अनोखी परंपरा का पालन होता आया है, जिसमें मंदिर में भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए काले मुलायम खोल वाले कछुए अर्पित किए जाते हैं। मंदिर में एक मीठे पानी का तालाब बना है, जहां भक्त कछुओं को छोड़ देते हैं। मनोकामना पूरी होने के बाद भक्त कछुए प्रसाद स्वरूप लेकर आते हैं, लेकिन विडंबना ये है कि काले मुलायम खोल वाले कछुए संरक्षित श्रेणी में आते हैं, जो तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि भक्तों का जंगलों से कछुए लाकर मंदिर में चढ़ाना प्रकृति के साथ खिलवाड़ के जैसा है। हालांकि, इस परंपरा का निर्वाहन आज भी हो रहा है।
हयग्रीव माधव मंदिर में जटिल नक्काशी और मूर्तियां हैं, जो मनमोहक पौराणिक कथाओं को बयां करती हैं और विभिन्न देवी-देवताओं को दर्शाती हैं। गर्भगृह में मुख्य रूप से भगवान विष्णु के हयग्रीव अवतार की प्रतिमा का पूजन होता है और प्रसाद स्वरूप दाल, चावल और कद्दू की सब्जी अर्पित की जाती है। मंदिर के निर्माण को लेकर कई तरह की बातें कही जाती हैं। कुछ लोगों का मानना है कि मंदिर का निर्माण राजा रघुदेव नारायण ने 1583 में करवाया था, जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मंदिर को पाल वंश के राजाओं ने अपने समय में बनवाया था।


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