नई दिल्ली, 5 सितंबर । ‘तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि।’ भले ही यह व्यंग्य लगे। लेकिन, यह हमारे समाज, हमारे परिवार और हमारे समय की सच्चाई है। ऐसा लिखने वाला शख्स समाज की हर उस नब्ज को टटोलने में माहिर है, जिसके जरिए हम रिश्तों को परिभाषित करने का ‘दंभ’ भरते और ‘इतराते’ दिख जाते हैं।
शरद जोशी एक ऐसा नाम है, जो हिंदी साहित्य प्रेमियों की लिस्ट में सबसे ऊपर है। शरद जोशी अपने समय के अनूठे रचनाकार रहे। अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए शब्दरूपी बाण चुनने वाले शरद जोशी पहले व्यंग्य नहीं लिखते थे। आलोचनाओं से खिन्न होकर व्यंग्य लिखना शुरू किया और लोगों को अपना फैन बना लिया।
एक लेखक के रूप में शरद जोशी की यात्रा स्वर्णिम रही। अपनी अविस्मरणीय यात्रा के बारे में शरद जोशी ने कहा था, “लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरकीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूं कि चलो, इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है।”
शरद जोशी देश के पहले व्यंग्यकार थे, जिन्होंने पहली बार मुंबई में ‘चकल्लस’ के मंच पर पाठ किया और किसी अन्य कवि से ज्यादा लोकप्रिय हो गए। 5 सितंबर 1991 को मुंबई में जीवन की दौड़ हारने वाले शरद जोशी के नाम के आगे जितनी भी उपमाएं लगा दी जाए, कम ही होगी। उन्होंने अपने शब्दों के जरिए समाज की चेतना कुरेदने का काम किया और उसे हमारे सामने रखा।
शरद जोशी का रूप-रंग सामान्य था। उनका बौद्धिक स्तर और दार्शनिक विचार खास था, जो उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता था। शरद जोशी की कलम हर उस विषय पर शानदार तरीके से चली, जिसके बारे में आम से लेकर खास तक सोचते हैं, लेकिन, उनके लिए ऐसे विषय पर उच्च स्तर का लिखना संभव नहीं है। इसी नजरिए की एक झलक ‘वोट ले दरिया में डाल’ में दिखती है।
‘वोट ले दरिया में डाल’ किताब में शरद जोशी लिखते हैं, “मुख्यमंत्री तीन किस्म के होते हैं। चुने हुए मुख्यमंत्री, रोपे हुए मुख्यमंत्री और तीसरे वे, जो इन दोनों की लड़ाई में बन जाते हैं। चुने हुए मुख्यमंत्रियों की तीन जात होती हैं। एक तो काबिलियत से चुने जाते हैं, दूसरे वे जो गुट, जाति, रुपयों आदि के दम जीतते हैं और तीसरे वे, जो कोई विकल्प न होने की स्थिति में चुन लिए जाते हैं।”
हरिशंकर परसाई को आधुनिक व्यंग्य का जनक माना जाता है। उसके पालन-पोषण का श्रेय शरद जोशी को जाता है। 21 मई 1931 को उज्जैन में पैदा हुए शरद जोशी ने लेखनी की शुरुआत कहानियों से की। इंदौर के होलकर महाविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा हासिल करने वाले शरद जोशी ने अपनी उच्च शिक्षा का व्यय भी अपने लेखन की पारिश्रमिक की बदौलत ही उठाया था।
उन्होंने लेखक, स्क्रीन राइटर, व्यंग्यकार, उपन्यास और कॉलम लेखन में भी अपनी प्रतिभा को साबित किया। शरद जोशी का विवाह इरफाना सिद्दीकी से हुआ था। इरफाना राइटर, रेडियो और थिएटर आर्टिस्ट थी। उनके परिवार में आम ब्राह्मण परिवार की तरह सभी धार्मिक मान्यताएं थी। यही कारण था कि जोशी परिवार ने शादी को आजीवन मान्यता नहीं दी।
शरद जोशी की चार बहनें थी और एक भाई भी। एक बहन उनसे बड़ी और बाकी छोटी थीं। उन्होंने 1955 के दौरान आकाशवाणी (इंदौर) के लिए कार्य किया। इसके बाद 1955 से 1956 तक मध्य प्रदेश के सूचना विभाग से बतौर जनसंपर्क अधिकारी के रूप में काम करते रहे। लेकिन, उनका मन नहीं रमा। आखिर में उन्होंने राजकीय सेवा छोड़कर पत्रकारिता को चुन लिया।
शरद जोशी ने ‘क्षितिज’, ‘छोटी सी बात’, ‘साच को आंच नहीं’, ‘गोधुली’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘उत्सव’ जैसी फिल्मों का लेखन किया। इसके अलावा ‘ये जो है जिंदगी’, ‘विक्रम और बेताल’, ‘सिंहासन बत्तीसी’, ‘वाह जनाब’, ‘देवीजी’, ‘प्यालों में तूफान’, ‘दाने अनार के’, ‘ये दुनिया गजब की’ जैसी दूरदर्शन के धारावाहिकों से भी शरद जोशी का नाम जुड़ा है।
उनकी व्यंग्य रचनाओं में ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘किसी बहाने’, ‘रहा किनारे बैठ’, ‘तिलिस्म’, ‘दूसरी सतह’, ‘पिछले दिनों’, ‘मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं’, ‘यथा संभव’, ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’, ‘जादू की सरकार’, ‘यत्र तत्र सर्वत्र’, ‘नावक के तीर’, ‘मुद्रिका रहस्य’, ‘यथा समय’ और ‘राग भोपाली’ प्रसिद्ध हैं। छोटे पर्दे पर प्रसारित ‘लापतागंज’ भी उनकी लेखनी पर आधारित है।
25 वर्षों तक कवि सम्मेलनों में पाठ करने वाले शरद जोशी को 1983 में ‘चकल्लस पुरस्कार’ मिला। उन्हें 1990 में पद्मश्री से भी नवाजा गया। इसके अलावा ‘काका हाथरसी सम्मान’, ‘सारस्वत मार्तंड’ जैसे प्रख्यात सम्मान भी दिए गए। शरद जोशी को हिंदी की बहुत चिंता थी। उन्होंने लिखा था, “अक्सर हिंदी का ईमानदार लेखक भ्रम और उत्तेजना के बीच की जिंदगी जीता है।”
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