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झारखंड के दुमका में 134वें साल चल रहा हिजला मेला, जहां जीवंत हैं मिथकों और परंपराओं के विविध रंग

Hijla Fair is going on for the 134th year in Dumka, Jharkhand, where diverse colors of myths and traditions are alive.

दुमका, 19 फरवरी । झारखंड की उपराजधानी दुमका में मयूराक्षी नदी के तट पर लगातार 134वें साल आयोजित हो रहे ऐतिहासिक राजकीय हिजला मेला में देश की जनजातीय संस्कृति के विविध रंग जीवंत हो उठे हैं। कई तरह की कहानियों, मिथकों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध इस मेले में झारखंड के अलावा विभिन्न राज्यों के जनजातीय कलाकार और कारीगर पहुंचे हैं।

16 फरवरी से जारी हिजला मेले का समापन 23 फरवरी को होगा। इस मेले के साथ जुड़े मिथकों में एक दिलचस्प मिथ यह है कि जब भी राज्यपाल, सीएम, मंत्री या किसी बड़े पद पर बैठा शख्स इसका उद्घाटन करता है तो उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ता है। तीन दशक पहले जब यह इलाका संयुक्त बिहार का हिस्सा था, तब राज्यपाल, मुख्यमंत्री या कोई मंत्री इस मेले का उदघाटन किया करते थे। धीरे-धीरे यह मिथ स्थापित हो गया कि जिसने भी इसका उदघाटन किया, उसकी कुर्सी खतरे में पड़ गई।

मसलन 1988 में बिहार के तत्कालीन सीएम बिंदेश्वरी दुबे ने इस मेले का उद्घाटन किया था और कुछ महीने बाद ही उनकी सीएम की कुर्सी चली गई थी। उनके बाद भागवत झा आजाद बिहार के सीएम बने और मेले का उद्घाटन करने के कुछ वक्त बाद उन्हें भी इस पद से हटना पड़ा। फिर सत्येंद्र नारायण सिंह बिहार के नए सीएम हुए और उन्हें इस मेले में आने के बाद कुर्सी से बेदखल होना पड़ा। 1989 में डॉ. जगन्नाथ मिश्र तीसरी बार बिहार के सीएम बने थे और इस मेले का उद्घाटन करने के तीन महीने बाद वह सीएम नहीं रह पाए। इस वर्ष भी इस मेले के उद्घाटन के लिए कोई बड़ी “हस्ती” उपलब्ध नहीं हुई। ग्राम प्रधान सुनीराम हांसदा ने फीता काटकर उद्घाटन किया।

3 फरवरी 1890 को संथाल परगना के तत्कालीन अंग्रेज उपायुक्त जॉन राबर्ट्स कॉस्टेयर्स के समय इस मेले की परंपरा शुरू हुई थी। मेला लगाने का मकसद शासन के बारे में संथाल इलाके के लोगों का फीडबैक लेना था। जनजातीय समुदायों के मानिंद लोग इस मेले में जुटते थे और इलाके के उन मसलों का यहां निपटारा किया जाता था, जो गांव की पंचायतों में सुलझ नहीं पाता था।

मेले के नामकरण को लेकर भी कई तरह की कहानियां हैं। कहते हैं कि चूंकि इस मेले के जरिए अंग्रेजी हुकूमत के अफसर जनजातीय परंपराओं और कानूनों से अवगत होते थे, इसी वजह से इसका नाम ‘हिज लॉ’ दिया था। हालांकि, कुछ लोगों की मान्यता है कि हिजला नामक गांव की वजह से इसका यह नाम रखा गया। वर्ष 1975 में संताल परगना के तत्कालीन उपायुक्त गोविंद रामचंद्र पटवर्द्धन की पहल पर हिजला मेले के आगे जनजातीय शब्द जोड़ दिया गया। वर्ष 2008 में झारखंड सरकार ने इस मेले को महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया और वर्ष 2015 में इसे राजकीय मेले का दर्जा दिया गया।

इसके बाद यह मेला राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव के रूप में जाना जाता है। साल दर साल की परंपरा ने इस मेले का संथाल इलाके का सबसे वृहत सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजन बना दिया। झारखंड सहित कई राज्यों के लोक कलाकारों और कारीगरों का यहां जुटान हुआ है। मेले में तरह-तरह के परंपरागत जनजातीय वाद्य यंत्रों की गूंज है। मेला न केवल जनजातीय समुदाय बल्कि गैर जनजातीय समुदायों की भी साझी विरासत का दर्शन कराता है।

त्रिकूट पर्वत से निकलने वाली मयूराक्षी नदी तथा पहाड़-पर्वतों के बीच इस मेले का आयोजन इसे अनूठा सौंदर्य प्रदान करता है। मेले में सरकार की विविध योजनाओं से लोगों को रुबरु कराने के लिए विभिन्न विभागों की ओर से कई तरह के स्टॉल लगाये गए हैं। इसके अलावा नृत्य संगीत की कई प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जा रहा है

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