June 23, 2025
Entertainment

स्मृति शेष : भारतीय सिनेमा के स्तंभ एलवी प्रसाद, तीन भाषाओं की बोलती फिल्मों के पहले नायक

In memory: LV Prasad, the pillar of Indian cinema, the first hero of three-language talking films

भारतीय सिनेमा में जब बहुभाषी योगदान, तकनीकी प्रगति और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर कहानियों की बात होती है, एलवी प्रसाद का नाम सम्मान से लिया जाता है। वह केवल एक फिल्म निर्माता या निर्देशक ही नहीं थे। वह फिल्म उद्योग के एक सशक्त स्तंभ थे, जिन्होंने तीनों भाषाओं (हिंदी, तमिल और तेलुगु) की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय करके इतिहास रचा।

17 जनवरी 1908 को आंध्र प्रदेश के इलुरु तालुका के एक साधारण किसान परिवार में जन्मे एलवी प्रसाद बचपन से ही रंगमंच और नृत्य की ओर आकर्षित थे। पढ़ाई में मन न लगने के कारण वे जल्दी ही पारंपरिक शिक्षा छोड़कर अपने सपनों के पीछे भागने लगे।

कम उम्र में ही उन्होंने मुंबई की ओर रुख किया, जहां उन्हें संघर्षों का सामना करना पड़ा। हालांकि, इन संघर्षों ने ही उन्हें सिनेमा की कला को भीतर तक समझने और सीखने का अवसर दिया।

एलवी प्रसाद का भारतीय सिनेमा में योगदान अनूठा और ऐतिहासिक है। उन्होंने भारत की तीन प्रमुख भाषाओं की पहली बोलती फिल्मों में अभिनय किया। भारत और हिन्दी की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ (1931) में उन्होंने एक छोटी भूमिका निभाई।

इसके अलावा, तमिल भाषा की पहली बोलती फिल्म ‘कालिदास’ और तेलुगु भाषा की पहली बोलती फिल्म ‘भक्त प्रह्लाद’ में भी उन्होंने भूमिका निभाई। यह उपलब्धि न केवल उन्हें भारत में विशिष्ट बनाती है, बल्कि यह दर्शाती है कि वह प्रारंभ से ही सिनेमा की परिवर्तनशील धारा के अग्रदूत थे।

एलवी प्रसाद ने अभिनय से आगे बढ़ते हुए फिल्म निर्देशन और निर्माण में भी अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी फिल्मों में सामाजिक मुद्दों का चित्रण बड़े ही संवेदनशील तरीके से किया जाता था। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने ‘शारदा’, ‘छोटी बहन’, ‘बेटी बेटे’, ‘हमराही’, ‘मिलन’, ‘राजा और रंक’, ‘खिलौना’, ‘एक दूजे के लिए’ जैसी फिल्में बनाकर दर्शकों का दिल जीत लिया।

साल 1959 में आई फिल्म ‘छोटी बहन’ भारतीय सिनेमा की वह दुर्लभ कृति थी, जिसने भाई-बहन के रिश्ते को केंद्र में रखा। इस फिल्म का गीत ‘भइया मेरे राखी के बंधन को निभाना’ आज भी रक्षा बंधन पर हर घर में गूंजता है और इस भावनात्मक रिश्ते को अभिव्यक्त करने वाला सबसे लोकप्रिय गीत माना जाता है।

उनकी प्रतिभा को न केवल दर्शकों ने सराहा, बल्कि देश ने भी उनका सम्मान किया। 1982 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है। इसके अलावा, फिल्म ‘खिलौना’ के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिया गया।

उनके नाम पर स्थापित एलवी प्रसाद आई इंस्टीट्यूट और प्रसाद आईमैक्स जैसे संस्थान, आज भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। जहां एक ओर इन संस्थानों में तकनीकी रूप से उन्नत फिल्म निर्माण और प्रदर्शनी का कार्य होता है, वहीं सामाजिक सरोकारों के लिए कार्यरत आई इंस्टीट्यूट नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में सराहनीय काम कर रहा है।

एलवी प्रसाद की फिल्में सामाजिक सच्चाइयों का आईना भी थीं। उन्होंने कथानक, संवाद और भावनाओं पर विशेष ध्यान देते हुए एक ऐसी सिनेमाई भाषा विकसित की, जो दर्शक के दिल तक पहुंचती थी। उनकी फिल्मों के संगीत, भावनात्मक गहराई और मानवीय रिश्तों की प्रस्तुति आज भी लोगों को भावुक कर देती है।

एलवी प्रसाद 22 जून 1994 को इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनकी बनाई फिल्में, उनके संस्थान और उनके योगदान आज भी भारतीय सिनेमा को दिशा दे रहे हैं। वे उन विरले फिल्मकारों में से थे, जिन्होंने तकनीकी नवाचारों के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को बराबरी से स्थान दिया।

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