N1Live Entertainment ‘खानदानी’ दुर्गा खोटे ने मजबूरी में तोड़ी परम्परा, प्रोफेशन से ज्यादा घर-बार से रहा प्यार
Entertainment

‘खानदानी’ दुर्गा खोटे ने मजबूरी में तोड़ी परम्परा, प्रोफेशन से ज्यादा घर-बार से रहा प्यार

'Khandaani' Durga Khote broke the tradition out of compulsion, she loved her family more than her profession.

नई दिल्ली, 23 सितंबर । आत्मकथाएं चुप्पी तोड़ती हैं। ‘मी दुर्गा खोटे’ ने ऐसी ही चुप्पी तोड़ी। दुर्गा खोटे कौन? ‘मुगल ए आजम’ की जोधाबाई, बेटों की बेरुखी की शिकार मां और उस दौर की ग्रेजुएट जब महिलाओं का बाहर निकलना भी असभ्य माना जाता था। 22 सितंबर 1991 को फिल्मी पर्दे पर अपनी अदायगी से रुलाने वाली मां दुनिया से रुखसत हो गई थीं।

मराठी और हिंदी दोनों फिल्मों में खोटे ने अपना लोहा मनवाया। पति की मौत के बाद दो बच्चों की जिम्मेदारी कंधों पर थी तो स्वाभिमानी दुर्गा ने किसी के सामने हाथ फैलाने से बेहतर फिल्मों में काम करना ठीक समझा। पहली फिल्म ट्रैप्ड (फरेबी जाल) में छोटा सा किरदार निभाया। लोगों को पसंद नहीं आई और फ्लॉप रही। दुर्गा ने सोच लिया था कि अब तो काम नहीं करेंगी लेकिन फिर एक निर्माता निर्देशक की नजर पड़ी और किस्मत पलट गई।

वो कोई और नहीं वी शांताराम थे। मराठी और हिंदी में बनी अयोध्या च राजा में दुर्गा को लिया और देखते ही देखते वो हिंदी सिनेमा का सितारा बन गईं। उसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं दिखा। फिल्म दर फिल्म कैरेक्टर आर्टिस्ट के तौर पर पहचान बनाई और पद्मश्री से लेकर दादा साहेब फाल्के की हकदार बनीं।

हिंदी फिल्मों की ‘मां’ का जन्म 14 जनवरी 1905 को महाराष्ट्र के कुलीन परिवार में हुआ। इनका असल नाम वीटा लाड था। संभ्रांत परिवार ने पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया नतीजतन वीटा ने ग्रेजुएशन तक की डिग्री हासिल की। इसके बाद शादी कर दी गई। दो बच्चे हुए लेकिन किस्मत ने एक झटका यहीं दिया और पति चल बसे। ऐसे समय में ही फिल्मों का रुख किया।

अपनी ऑटोबायोग्राफी में दुर्गा मैकेनिकल इंजीनियर पति खोटे की निश्चिंतता का भी जिक्र करती हैं। अपना दर्द बयां किया। परिवार और परम्पराओं में जकड़ी महिला का ये पंक्तियां बताती हैं कि शादीशुदा लाइफ में सब कुछ होने के बाद भी वो अकेली थीं। लिखती हैं- “मैं समझ नहीं पा रही थी कि मिस्टर खोटे की दिशाहीन जीवनशैली पर कैसे और कहां रोक लगाऊं…उनकी बुरी आदतें और व्यसन बढ़ते जा रहे थे। वे जब चाहें दफ़्तर चले जाते थे। आवारा और चापलूसों की संगत बढ़ती जा रही थी। उन्हें घर, बच्चों या वित्तीय मामलों की कोई चिंता नहीं थी। उनका जीवन गैर-ज़िम्मेदाराना था।

खैर, दुर्गा ने सब कुछ सहा और मुस्कुरा कर जीवन जीती रहीं। बच्चों के लिए खुद को खड़ा किया। पहली बार कई ऐसे काम किए जिसने उस दौर में सबको दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर कर दिया। पहली ऐसी एक्टर बनीं जो किसी कॉन्ट्रैक्ट में नहीं बंधी, विभिन्न निर्माताओं के लिए काम किया, फिर एक फिल्म साथी को प्रोड्यूस ही नहीं किया बल्कि डायरेक्ट भी किया। ये करने वाली भी पहली फीमेल एक्टर थीं। इतना ही नहीं क्लासिक दौर की पहली एक्टर थी जो मर्सिडीज बेंज के विज्ञापन में दिखीं।

मुस्कान हर दिल अजीज थी। हृषिकेश दा तो इन्हें अपना लकी चार्म तक कहते थे और इनके बेहद करीबा यार दोस्त डिम्पल नाम से पुकारते थे। एक बात और 80 के दशक में जब टीवी का दौर आया तो एक बड़े शो का निर्माण किया। ऐसा शो जो आम से जीवन की खास कहानी कहता था। सालों बाद वो नए कलेवर में भी दर्शकों के सामने आया और उसका नाम था वागले की दुनिया।

मी दुर्गा खोटे में इस मंझी हुई कलाकार ने बहुत कुछ लिखा लेकिन केंद्र में रहा घर-बार-परिवार। इसमें ही लिखा था- मिशन तो बहुत हैं, लेकिन अब ताकत नहीं बची। उम्र 85 साल हो चुकी है।कुछ करने की हिम्मत नहीं रही। ख्वाहिशें तो बहुत हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकती।

Exit mobile version