पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि सीआरपीसी की धारा 173(8) के तहत आपराधिक मामलों में आगे की जांच तभी की जा सकती है जब नए साक्ष्य सामने आएं। न्यायालय ने कहा कि इस कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल केवल पुराने तथ्यों को दोहराकर या उन्हें अलग तरीके से पेश करके आरोपों को जोड़ने या हटाने के लिए नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति हरप्रीत सिंह बरार ने कहा, “जांच एजेंसी के पास कोई नई सामग्री उपलब्ध होने के बिना धारा 173(8) का प्रावधान लागू नहीं किया जा सकता।” अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इसका उद्देश्य नए भौतिक साक्ष्यों को उजागर करना था, न कि केस फाइल में पहले से मौजूद समान जानकारी के आधार पर आरोपों में बदलाव करना।
न्यायमूर्ति बरार ने कहा, “धारा 173(8) का उद्देश्य और उद्देश्य रिकॉर्ड पर पहले से मौजूद तथ्यों को दोहराकर या उन्हें नए मोड़ के साथ पेश करके यांत्रिक रूप से अपराधों को जोड़ना या हटाना नहीं है। संबंधित अदालत रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामले के आधार पर आरोप तय करने के लिए पूरी तरह सक्षम है।”
अदालत ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए निष्पक्ष जांच ज़रूरी है, इसे एक मौलिक अधिकार बताया। अदालत ने ज़ोर देकर कहा, “स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए आगे की जांच शुरू करने से पहले संबंधित अदालत की अनुमति लेना प्रक्रियागत औचित्य का मामला है, जो कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक पोषित मौलिक अधिकार है, खासकर तब जब मुकदमा शुरू हो चुका है।”
न्यायमूर्ति बरार ने यह भी स्पष्ट किया कि ‘आगे की जांच’ और ‘पुनः जांच’ की अवधारणाएं अलग-अलग हैं, इसलिए इन्हें समकालिक नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जांच एजेंसी को आगे की जांच करते समय एकत्र किए गए अतिरिक्त साक्ष्यों का संकेत देने वाली रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी। अदालत ने कहा, “इसमें कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि जांच एजेंसी केवल मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति के बाद ही इस कार्य को शुरू कर सकती है।”
यह दावा ऐसे मामले में किया गया है, जहां पूरक रिपोर्ट के अवलोकन से यह “स्पष्ट” संकेत मिलता है कि आगे की जांच की आड़ में एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध जोड़ा गया था।