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ओलंपियन और फीफा रेफरी, ‘हकीम साब’ नाम से मशहूर हैं सैयद शाहिद हकीम

Olympian and FIFA referee, Syed Shahid Hakim, popularly known as 'Hakim Saab'

 

नई दिल्ली, भारत दुनिया के कुछ सबसे पुराने फुटबॉल क्लबों का घर है। दुनिया की तीसरी सबसे पुरानी प्रतियोगिता ‘डूरंड कप’ इस बात का गवाह है। एक समय था जब भारत को ‘एशिया का ब्राजील’ कहा जाता था। उस स्वर्णिम इतिहास की कहानी में कई बड़े नाम शुमार है, जिन्होंने अपनी काबिलियत और हुनर के दम पर इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया।

उन्हीं दिग्गजों में ‘हकीम साब’ उर्फ सैयद शाहिद हाकिम शामिल हैं। हकीम साब (82 साल) नाम से लोकप्रिय सैयद शाहिद हकीम ने 22 अगस्त 2021 को अंतिम सांस ली थी। उनकी पुण्यतिथि पर चलिए उनसे जुड़े कुछ दिलचस्प किस्सों पर नजर डालते हैं।

ये विडंबना ही है कि फुटबॉल में भारत का शानदार इतिहास और कई महान खिलाड़ी होने के बाद भी ये खेल देश में हाशिए पर रहा। भारत में फुटबॉल के इतिहास की बात करें, तो साल 1937 में ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) की स्थापना की गई, जो आगे चलकर देश में फुटबॉल के शासी निकाय के रूप में भारतीय फुटबॉल संघ (आईएफए) बना।

इस खेल के इतिहास में सैयद शाहिद हकीम का नाम भी सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। हकीम साब ने अपने जीवन के तकरीबन 50 वर्ष इस खेल को समर्पित किए। इस दौरान उन्होंने खिलाड़ी, सहायक कोच, मुख्य कोच, रेफरी, मैनेजर कई भूमिकाएं निभाईं। इसके अलावा वह ‘फीफा’ के अंतरराष्ट्रीय रेफरी भी रहे। साथ ही, भारतीय वायुसेना में वे स्क्वॉड्रन लीडर के पद पर तैनात थे।

सैयद सेंट्रल मिडफील्डर के रूप में खेला करते थे और जब गेंद उनके पास होती थी, तो वो विरोधी खिलाड़ियों को छकाने का माद्दा रखते थे। हकीम साब के जीवन में कुछ ऐसा भी हुआ था जिसने उनके करियर पर अल्प विराम तो लगाया लेकिन हौसले को पस्त नहीं होने दिया। दरअसल, उन्हें 1960 के रोम ओलंपिक में खेलने का मौका नहीं मिला था। संयोग से तब कोच उनके पिता सैयद अब्दुल रहीम थे। इसके बाद वह एशियाई खेल, 1962 में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम में भी जगह बनाने से चूक गए थे।

हालांकि, इससे उनकी क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठा था। लंबे समय तक टीम से जुड़े रहे हकीम साब को ‘द्रोणाचार्य पुरस्कार’ और ‘ध्यानचंद पुरस्कार’ (2017) से सम्मानित किया गया था। हकीम साब उस दशक के खिलाड़ियों में शामिल रहे, जिन्होंने खूब संघर्ष किया था। उस समय संसाधनों के अभाव में भी इन खिलाड़ियों ने कमाल का जज्बा दिखाया था। ये विडंबना है कि कभी देश का गर्व रहा फुटबॉल आज महज कुछ लोगों की ही ज़ुबान पर बचा है।

 

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