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‘शहंशाह-ए-गजल’ : मेहदी हसन की आवाज की दुनिया मुरीद

‘Shahenshah-e-Ghazal’: The world is a fan of Mehdi Hassan’s voice

‘मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तिरी महफिल में लेकिन हम न होंगे’ यही नहीं, ‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें’ ये पंक्तियां जितनी खूबसूरत और इमोशंस से भरी हैं, उतनी ही खूबसूरती से इसे अपनी आवाज में ‘शहंशाह-ए-गजल’ के नाम से मशहूर मेहदी हसन ने उतारा था।

उन्हें आम जन के साथ ही गजल प्रेमी कभी भूल नहीं सकते और ‘अजीम’ गजल के जरिए उनकी लाइन्स अक्सर लोगों की जुबां पर आ जाती हैं। कभी ‘दिल-ए-नादां’ बनकर तो कभी ‘शोला था जल-बुझा हूं’ बनकर।

शहंशाह-ए-गजल मेहदी हसन एक मिल्कियत के मालिक थे, जिनकी आवाज को सुकून का दूसरा पहलू कहें तो ज्यादा न होगा। 13 जून 2012 में वह 84 वर्ष की आयु में दुनिया से रुखसत हो गए थे और छोड़ गए अपनी मौसिकी, अपने गाए गजल जो कभी नहीं भुलाए जा सकते।

बचपन से ही उनका संगीत से गहरा रिश्ता बन गया था। उन्होंने पिता उस्ताद अजीम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से आठ वर्ष की उम्र से संगीत की तालीम लेनी शुरू कर दी थी। खास बात है कि 18 वर्ष की उम्र तक आते-आते वह ध्रुपद, ठुमरी और ख्याल की चाशनी में खुद को डुबो चुके थे, जिसकी मिठास को आज भी उनके प्रशंसक महसूस करते हैं।

उनकी मौसिकी सरहदों के दायरों को पारकर श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। खास बात है कि उनकी शायरी में दर्द भी एक अलग रंग में गहराई से मिलती थी, जो बरबस ही एक अलग दुनिया में ले जाती थी।

18 जुलाई 1927 के दिन राजस्थान के झुंझनू जिले के लूना गांव में मेहदी हसन का जन्म हुआ। 1947 में भारत के विभाजन के बाद वह 20 वर्ष की आयु में परिवार के साथ पाकिस्तान चले गए थे। जानकारी के अनुसार वहां पर उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था।

मेहदी हसन ने कई गजलों को आवाज दी, जो आज भी सुनी जाती हैं। इनमें ‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ’, ‘अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें’, ‘दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है’, ‘गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले’, ‘कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की’, ‘मोहब्बत करने वाले कम न होंगे’, ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’, ‘शोला था जल-बुझा हूं हवाएं मुझे न दो’, ‘फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया’ जैसे गजल शामिल हैं।

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