पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने कहा है कि एक आदर्श नियोक्ता के रूप में, राज्य का कानूनी दायित्व है कि वह न केवल अपने कर्मचारियों को देय भुगतान समय पर जारी करे, बल्कि अनुचित देरी की स्थिति में ब्याज भी दे। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सरकार निजी वित्तपोषक की भूमिका नहीं निभा सकती और उसे अपनी गलती के कारण रोके गए बकाया की ज़िम्मेदारी उठानी होगी।
न्यायमूर्ति एन.एस. शेखावत ने यह फैसला कंप्यूटर शिक्षिका गीता रानी की याचिका को स्वीकार करते हुए सुनाया, जिसमें उन्होंने कई वर्षों की देरी के बाद जारी अपने वेतन बकाया पर ब्याज की मांग की थी। पीठ ने प्रतिवादियों को आदेश प्राप्त होने के दो महीने के भीतर 28 अगस्त, 2011 से 22 फरवरी, 2018 के बीच की अवधि के बकाया पर छह प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से ब्याज का भुगतान करने का निर्देश दिया। याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता सनी सिंगला उपस्थित हुए।
न्यायमूर्ति शेखावत ने अपने आदेश में कहा, “राज्य हमेशा एक आदर्श नियोक्ता के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य है और निजी वित्तपोषक की भूमिका नहीं निभा सकता। राज्य हमेशा अपने कर्मचारियों को समय पर देय भुगतान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है और नियोक्ता की गलती के कारण ऐसे भुगतानों के वितरण में किसी भी अनुचित देरी की स्थिति में, राज्य कानूनी रूप से ब्याज सहित बकाया राशि का भुगतान करने के लिए बाध्य है।”
यह मामला याचिकाकर्ता के नियमितीकरण के दावे से उत्पन्न हुआ था। पीठ ने पाया कि गीता रानी 28 फरवरी, 2009 को सेवा में शामिल हुई थीं। राज्य के निर्देशों के अनुसार, ढाई साल पूरा करने वाले कंप्यूटर शिक्षकों की सेवाओं को 1 जुलाई, 2011 से हर चार महीने में नियमित किया जाना था। तदनुसार, वह 28 अगस्त, 2011 को नियमितीकरण की हकदार हो गईं। उच्च न्यायालय ने, पूर्व की कार्यवाही में, उनके अधिकार को मान्यता दी और राज्य द्वारा दावा किए गए 1 अप्रैल, 2012 के बजाय उसी तिथि से नियमितीकरण प्रदान किया।
आदेश के बाद, उन्हें 28 अगस्त, 2011 से 1 अप्रैल, 2012 तक 2,10,778 रुपये का बकाया भुगतान किया गया। हालाँकि, ये बकाया राशि लंबे विलंब के बाद, 22 फरवरी, 2018 के ज्ञापन के अनुसार 28 फरवरी, 2018 को जारी की गई, और कोई ब्याज नहीं दिया गया।