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भारतीय समाज में स्त्री विमर्श की आधार, जिनकी आत्मकथा ने ‘सोच’ पर उठाए सवाल

The basis of women's discussion in Indian society, whose autobiography raised questions on 'thinking'

नई दिल्ली, 19 सितंबर । भारतीय समाज में स्त्रियों को लेकर कई विरोधाभास हैं। एक पुरुष लेखक के दृष्टिकोण से स्त्रियों का स्वरूप सच्चाई से कुछ-कुछ अलग है। लेकिन, स्त्रियों को एक स्त्री ही समग्रता से समझ सकती है। यही काम प्रभा खेतान ने किया। उन्होंने स्त्रियों के हर उस रूप को खुद के अनुसार समझा, जिसे पढ़कर आप भी स्त्री के जीवन और रोजाना की चुनौतियों से दो-चार हो जाएंगे।

12 साल की उम्र में खुद को साहित्य साधना में समर्पित करने वाली प्रभा खेतान का जन्म 1 नवंबर 1942 को हुआ था। उन्होंने साहित्य साधना में स्त्री के सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और नैतिक मूल्यों को गहराई से समझा था। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त की। इसके अलावा प्रभा खेतान ने ‘ज्यां पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद’ विषय पर पीएचडी की।

उन्हें साहित्य के अलावा दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विश्व बाजार और उद्योग जगत की भी गहरी समझ थी। इसके अलावा अपने समय के स्त्री विमर्श के केंद्र-बिंदु में भी प्रभा खेतान एक लोकप्रिय आवाज थीं। उन्हें फ्रांसीसी रचनाकार सिमोन द बोउवार की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ के अनुवादक के रूप में ख्याति मिली। इसका अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ के नाम से आया, जिसने प्रभा खेतान को काफी लोकप्रिय बनाया।

सिमोन द बोउवार ने ‘द सेकेंड सेक्स’ के जरिए एक सिद्धांत को समाज के सामने रखा। यह सिद्धांत था कि ‘सेक्स’ और ‘जेंडर’ दो अलग-अलग चीजें हैं। अगर महिलाओं की वास्तविक समस्याओं को देखना है तो इसके लिए ‘जेंडर’ को आधार बनाना होगा, ना कि ‘सेक्स’ को। सीमोन द बोउवार के ‘द सेकेंड सेक्स’ से उपजे सिद्धांत को प्रभा खेतान ने भारतीय समाज में व्याप्त चिंतन से जोड़ने में सफलता पाई थी।

प्रभा खेतान को ‘बाज़ार के बीच, बाज़ार के खिलाफ : भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न’, ‘शब्दों का मसीहा सा‌र्त्र’, ‘आओ पेपे घर चले’, ‘तालाबंदी’, ‘अग्निसंभवा’, ‘एडस’, ‘छिन्नमस्ता’, ‘अपने-अपने चेहरे’, ‘पीली आंधी’ और ‘स्त्री पक्ष’ जैसी रचनाओं ने भी खूब प्रसिद्धि दिलाई। इसके अलावा उन्होंने अपने जीवन के अनछुए पहलुओं को आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ में लिखकर साहित्य जगत को चौंकाने का काम किया था।

इस आत्मकथा में प्रभा खेतान ने बोल्ड और निर्भीक औरत का चित्रण किया था। यह किताब साल 2007 में प्रकाशित हुई और देखते ही देखते लोकप्रिय हो गई। इस किताब में प्रभा खेतान ने जिस बेबाकी से अपने जीवन यात्रा को दर्शाया है, उसे पढ़कर आपको भी एक स्त्री के सामने हर दिन आने वाली चुनौतियों का पता चलेगा, जिसे आप देख भी चुके होंगे, लेकिन, उसकी भयावहता का अंदाजा नहीं हुआ होगा।

उन्होंने ‘अन्या से अनन्या’ में लिखा था, “बाद के दिनों में मैंने समझा कि हमारी औरतें वह चाहे बाल कटी हो, गांव-देहात से आई हों, कहीं भी सुरक्षित नहीं। उनके साथ कुछ भी घटना है। सुरक्षा का आश्वासन पितृसत्तात्मक मिथक है। स्त्री कभी सुरक्षित थी ही नहीं, पुरुष भी इस बात को जानता है। इसलिए सतीत्व का मिथक संवर्धित करता रहता है। सती-सावित्री रहने का निर्देशन स्त्री को दिया जाता है।”

प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या’ में भारतीय स्त्रियों की दैहिक स्वतंत्रता पर आगे लिखा था, “पर कोई भी सती रह नहीं पाती। हां, सतीत्व का आवरण जरूर ओढ़ लेती है या फिर आत्मरक्षा के नाम पर जौहर की ज्वाला में छलांग लगा लेती है। व्यवसाय जगत में कुछ अन्य समस्याएं भी सामने आई। कारण, किसी भी समाज में कुछ ऐसे कोड होते हैं जो स्त्री-पुरुषों के आपसी संबंध को निर्धारित करते हैं।”

उन्होंने पश्चिमी और भारतीय समाज पर भी गूढ़ बातें कही थी। उन्होंने पश्चिमी और भारतीय समाज को लेकर भी ‘अन्या से अनन्या’ में लिखा था, “विवाह से पूर्व यौन संबंध में कैथोलिक स्त्री की आस्था नहीं। वह शायद ही हां करे। प्रगतिशील भारत में कई तरह के भिन्न-भिन्न समाज हैं, जातियां हैं, बड़े और छोटे शहर हैं। कमर नचाती बम्बइया हीरोइन हैं तो पूरे बदन को साड़ी में लपेटकर चलती हुई औरतें भी हैं।”

प्रभा खेतान कोलकाता चैंबर ऑफ कॉमर्स की पहली महिला अध्यक्ष रही थीं। उन्हें प्रतिभाशाली महिला पुरस्कार, टॉप पर्सनैलिटी अवॉर्ड, महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार जैसे कई सम्मान मिले। हिंदी भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका, उपन्यासकार और नारीवादी चिंतक प्रभा खेतान का निधन 20 सितंबर 2008 को हुआ था। आज भी प्रभा खेतान को स्त्री विमर्श की भारतीय धुरी माना जाता है।

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