आजादी के योद्धाओं में शामिल और कांग्रेस में होते हुए जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले आचार्य कृपलानी का जीवन अपने आखिरी पलों तक दिलचस्प रहा। उनकी छवि लोकनायक जयप्रकाश नारायण के साथ केंद्रीय मंच साझा करने और मोरारजी देसाई (देश के पहले गैर-कांग्रेसी पीएम को तौर पर) को ऐतिहासिक 1977 के आम चुनावों के बाद संसद में जनता पार्टी के नेता के रूप में नामित करने करने को लेकर भी चर्चाओं में रही।
लेकिन जीवतराम भगवानदास कृपलानी (11 नवंबर, 1888 – 19 मार्च, 1982) के सफर में संसद के सेंट्रल हॉल में उनकी उस प्रसिद्ध उपस्थिति के अलावा और भी बहुत कुछ रहा।
जीवतराम भगवानदास कृपलानी की छवि एक गांधीवादी नेता के तौर पर रही, जिन्हें आचार्य कृपलानी के नाम से जाना जाता था और रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ में उनका किरदार अनंग देसाई द्वारा निभाया गया था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई मौकों पर गिरफ्तारी दी और वह 12 वर्षों तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव रहे – शायद सबसे लंबे समय तक कोई नेता इस पद पर रहा – और 1947 में सत्ता के हस्तांतरण के दौरान पार्टी के पुनर्निर्माण के समय वे पार्टी के अध्यक्ष पद पर पदोन्नत हुए।
वह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ विद्रोह करने वाले पहले व्यक्ति भी थे और उन्होंने 1962 के विनाशकारी भारत-चीन युद्ध के मद्देनजर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था। वह सुचेता कृपलानी के पति थे, जो किसी राज्य की मुख्यमंत्री बनने वाली पहली भारतीय महिला थीं। आचार्य कृपलानी एक शिक्षाविद् थे, जो दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी में जाने से पहले पर्यावरणविद् और लंबे समय तक गांधीवादी रास्ते पर चलते हुए समाजवादी भी बने रहे।
वह एक समय महात्मा गांधी के सबसे उत्साही शिष्यों में से एक रहे थे। स्वतंत्रता के बाद, प्रक्रियात्मक मामलों को लेकर पार्टी और सरकार के बीच विवादों ने सरकार में अपने सहयोगियों के साथ कृपलानी के संबंधों को प्रभावित किया। अंतत:, वह 1920 के असहयोग आंदोलन से लेकर 1975 में आपातकाल तक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से लेकर, प्रेरणा के स्रोत के रूप में, असंतुष्टों या विद्रोहियों की पीढ़ियों के बीच प्रसिद्ध हो गए।
कृपलानी का जन्म 1888 में हैदराबाद (सिंध) में हुआ था। पुणे के फग्र्यूसन कॉलेज में अपनी शिक्षा के बाद, उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से गांधी की वापसी के मद्देनजर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से पहले एक स्कूली शिक्षक के रूप में काम किया।
1912 से 1917 तक उन्होंने एल. एस. कॉलेज (तब ग्रियर बी. बी. कॉलेज के रूप में जाना जाता था), मुजफ्फरपुर, बिहार में अंग्रेजी और इतिहास के व्याख्याता (लेक्चरर) के रूप में काम किया। इसके बाद वह 1920 के दशक की शुरुआत में असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।
इसके बाद, उन्होंने गुजरात में गांधी के आश्रमों में कार्यभार संभालते हुए अपना योगदान दिया। उन्होंने बिहार में शिक्षण कार्य छोड़ने के बाद आश्रमों में सामाजिक सुधार और शिक्षा पर काम किया। सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें कई मौकों पर गिरफ्तार किया गया – वे नमक सत्याग्रह के मुख्य आयोजकों में से एक थे – और बाद में गांधी के अंतिम बड़े राष्ट्रीय विरोध, भारत छोड़ो आंदोलन में भी शामिल हुए।
वे अंतरिम सरकार (1946-1947) के दौरान भी सक्रिय रहे और संविधान सभा के सदस्य बने, लेकिन वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू दोनों के साथ वैचारिक रूप से भिन्न होने के बावजूद, वे 1947 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए।
जनवरी 1948 में गांधी की हत्या के बाद, नेहरू ने कृपलानी की इस मांग को खारिज कर दिया कि सभी फैसलों में पार्टी के विचार मांगे जाने चाहिए। पटेल के समर्थन के साथ नेहरू ने कृपलानी से कहा कि हालांकि पार्टी व्यापक सिद्धांतों और दिशानिदेशरें को निर्धारित करने की हकदार है, लेकिन सरकार के दिन-प्रतिदिन के मामलों में इसे अधिकार नहीं दिया जा सकता है। यह मिसाल बाद के दशकों में सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच संबंधों का केंद्र बन गई।
हालांकि, नेहरू ने 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में कृपलानी का समर्थन किया, लेकिन पटेल के उम्मीदवार पुरुषोत्तम दास टंडन से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। हार से परेशान और अनगिनत ग्राम गणराज्यों के गांधीवादी आदर्श के परित्याग के रूप में उन्होंने जो देखा, उससे उनका मोहभंग हो गया और कृपलानी ने कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद वे किसान मजदूर प्रजा पार्टी (केएमपीपी) के संस्थापकों में से एक बन गए। बाद में यह पार्टी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) बनाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में विलय हो गई।
कृपलानी जीवन भर विपक्ष में रहे और 1952 में लोकसभा के लिए चुने गए (वह उस वर्ष फैजाबाद, यूपी से केएमपीपी उम्मीदवार के रूप में आम चुनाव हार गए थे, लेकिन भागलपुर, बिहार से पीएसपी उम्मीदवार के रूप में उपचुनाव जीते)। उन्होंने 1957 में सीतामढ़ी, बिहार से पीएसपी उम्मीदवार के तौर पर और 1963 व 1967 में (गुना, मध्य प्रदेश में एक उपचुनाव में स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के रूप में, जो अब ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास है) भी चुनाव लड़ा।
सुचेता कृपलानी, जिनसे उन्होंने 1938 में शादी की थी, कुछ समय के लिए केएमपीपी में शामिल हुईं थीं, लेकिन बाद में कांग्रेस में लौट आईं और उन्होंने कई केंद्रीय मंत्रालयों का नेतृत्व किया। जब 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो उन्होंने एस. निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली कांग्रेस (संगठन) को चुना।
हालांकि वे चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे, लेकिन कृपलानी किसी भी चीज से ज्यादा समाजवादियों के बीच काफी लोकप्रिय रहे। उन्हें आम तौर पर विनोबा भावे के साथ गांधीवादी गुट के नेता के तौर पर पहचान मिली। वह भावे के साथ, 1970 के दशक में सुरक्षा एंव संरक्षण जैसी गतिविधियों में सक्रिय रहे।
1972-73 में, उन्होंने नेहरू की बेटी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बढ़ते सत्तावादी शासन के खिलाफ आंदोलन किया। कृपलानी और जयप्रकाश नारायण का मानना था कि इंदिरा गांधी का शासन तानाशाही और लोकतंत्र विरोधी हो गया है। अपने चुनाव अभियान के लिए सरकारी मशीनरी का उपयोग करने के आरोप में 1975 में उनकी सजा ने उनके राजनीतिक विरोध और उनकी नीतियों के खिलाफ सार्वजनिक मोहभंग को बढ़ा दिया था।
जयप्रकाश नारायण के साथ, कृपलानी ने अहिंसक विरोध और सविनय अवज्ञा का आग्रह करते हुए देश का दौरा किया। जब मुखर असंतोष के परिणामस्वरूप आपातकाल की घोषणा की गई, तो कृपलानी 26 जून, 1975 की रात को गिरफ्तार होने वाले पहले विपक्षी नेताओं में से थे।
कृपलानी ने आपातकाल के ‘बुरे’ दिनों को देखने को बाद 1977 के चुनावों में जनता पार्टी की जीत के बाद आजादी के बाद पहली गैर-कांग्रेसी सरकार देखी। उन्हें और जयप्रकाश नारायण, दो प्रमुख हस्तियों को नई पार्टी का संसदीय नेता चुनने के लिए कहा गया – और उन्होंने मोरारजी देसाई को चुना।
कृपलानी का 93 वर्ष की आयु में 19 मार्च 1982 को अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में निधन हो गया। उनके जन्म की 101वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में 11 नवंबर 1989 को एक डाक टिकट जारी किया गया था।
विष्णु मखीजानी –आईएएनएस