November 24, 2025
Entertainment

टुनटुन: जीवन में झेले दर्द पर हिंदी सिनेमा में दर्शकों को गुदगुदाकर लिखा सफलता का अफसाना, इस नाम की भी दिलचस्प कहानी

Tuntun: A story of success that tickled the audience in Hindi cinema, based on the pain she endured in life, and this name also has an interesting story.

हिंदी सिनेमा में जब भी हंसी और कॉमेडी की बात होती है, तो कुछ चेहरे अपने आप याद आने लगते हैं। उनमें सबसे खास नाम है ‘उमा देवी खत्री’ का, जिन्हें प्यार से फैंस ‘टुनटुन’ कहकर बुलाते थे। यह नाम एक फिल्म की शूटिंग के दौरान अचानक हुआ एक मजाक था। दिलीप कुमार ने एक हल्की-फुल्की टिप्पणी में इस शब्द को कहा था और यहीं से उमा देवी खत्री हमेशा के लिए टुनटुन बन गईं।

हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाने से पहले उमा देवी की जिंदगी का सफर काफी दर्दभरा और संघर्षों से भरपूर था।

उमा देवी खत्री का जन्म 11 जुलाई 1923 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में हुआ था। वह तकरीबन ढाई साल की थीं, जब जमीन के विवाद में उनके माता-पिता की हत्या कर दी गई। कुछ साल तक उनके बड़े भाई ने उनका ख्याल रखा, लेकिन जब वह नौ साल की हुईं, तब उनके भाई की भी हत्या कर दी गई। इस तरह छोटी उम्र में ही वह अनाथ हो गईं और रिश्तेदारों के सहारे रहने लगीं। वहां भी उनका जीवन आसान नहीं था। रिश्तेदारों ने उन्हें नौकरानी की तरह रखा। उन्हें पढ़ाई का कोई मौका नहीं मिला, लेकिन उनका मन संगीत में काफी था। वह रेडियो के जरिए संगीत का लुत्फ उठाती थीं।

किशोरावस्था में उनकी मुलाकात अख्तर अब्बास काजी नाम के युवक से हुई, जो उनके गाने से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने मदद का वादा तो किया, लेकिन 1947 के बंटवारे के बाद उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा। दूसरी ओर, उमा देवी को रिश्तेदार के घर पर रहकर दिल्ली की तंग जिंदगी रास नहीं आई और वह बिना किसी को बताए मुंबई आ गईं। वहां उनकी मुलाकात कुछ फिल्मी कलाकारों और निर्देशकों से हुई। आखिरकार उन्हें एक बड़ा मौका तब मिला, जब वह संगीतकार नौशाद के पास पहुंचीं। नौशाद उनकी हिम्मत और आवाज दोनों से प्रभावित हुए और उन्हें फिल्म ‘दर्द’ में गाने का मौका दिया। 1947 में रिलीज हुए इस फिल्म का गाना ‘अफसाना लिख रही हूं’ जबरदस्त हिट हुआ।

उमा देवी रातोंरात एक मशहूर गायिका बन गईं। उनकी आवाज पाकिस्तान में बैठे अख्तर अब्बास काजी तक भी पहुंची, जिन्होंने मुंबई आकर उनसे शादी कर ली। शादी के बाद उमा देवी ने सिंगिंग से दूरी बना ली, लेकिन जब आर्थिक परेशानियां बढ़ीं, तो वह फिर से काम की तलाश में नौशाद के पास पहुंचीं। इस बार नौशाद ने उन्हें सलाह दी कि वे गायकी नहीं, बल्कि अभिनय में हाथ आजमाएं, क्योंकि अब उनके व्यक्तित्व और बढ़े हुए वजन के कारण कॉमेडी में उनकी खूबियां ज्यादा चमक सकती हैं।

उमा देवी ने शर्त रखी कि वह अपनी पहली फिल्म सिर्फ दिलीप कुमार के साथ ही करेंगी। इसी दौरान दिलीप कुमार ‘बाबुल’ फिल्म की शूटिंग कर रहे थे और उन्होंने उमा देवी को इस फिल्म में शामिल कर लिया। शूटिंग के एक सीन में उमा देवी अचानक फिसलकर गिर गईं। सेट पर मौजूद सभी लोग चौंक गए, लेकिन दिलीप कुमार ने मजाक के तौर पर कहा, ‘अरे, कोई इस टुन-टुन को उठाओ।’ यह लाइन वहां मौजूद सभी के चेहरे पर मुस्कान ले आई। इसी एक पल ने उमा देवी को उनकी नई पहचान दे दी और वह ‘टुनटुन’ के नाम से पूरी फिल्म इंडस्ट्री में मशहूर हो गईं।

टुनटुन ने करीब 200 फिल्मों में काम किया और हिंदी सिनेमा की पहली महिला कॉमेडियन के रूप में अपनी खास पहचान बनाई। वह ‘आर-पार’, ‘बाबुल’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘प्यासा’, ‘नमक हलाल’ जैसी कई सफल फिल्मों का हिस्सा रहीं। उनकी कॉमिक टाइमिंग इतनी जबरदस्त थी कि छोटे से छोटे रोल में भी वह दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ जाती थीं। दिलीप कुमार, गुरु दत्त, महमूद और कई बड़े कलाकार उनके साथ काम करना पसंद करते थे।

1992 में पति अख्तर अब्बास काजी के निधन के बाद टुनटुन का मन फिल्मों से हटने लगा और उन्होंने धीरे-धीरे इंडस्ट्री से दूरी बना ली। 24 नवंबर 2003 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। मुश्किल जिंदगी, संघर्ष और दर्द से भरी राह के बावजूद उन्होंने लाखों लोगों को हंसाया। उन्होंने दर्शकों को सिर्फ हंसाया ही नहीं, बल्कि हिंदी फिल्मों में महिलाओं के लिए कॉमेडी का एक नया रास्ता खोला।

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