वाराणसी, 18 दिसंबर । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि संत की साधना मूर्त रूप लेती है तो इस प्रकार का धाम (स्वर्वेद महामंदिर) बनकर तैयार होता है। सदगुरु सदाफल देव महराज ने देश की आजादी के लिए भी संघर्ष किया था। हम आज नए भारत की अनुभूति कर रहे हैं। नया भारत प्रधानमंत्री के नेतृत्व में दुनिया का मार्गदर्शन व अपनी विरासत पर गौरव की अनुभूति कर रहा है।
सीएम योगी ने सोमवार को वाराणसी में स्वर्वेद महामंदिर धाम के उद्घाटन कार्यक्रम को संबोधित किया। सीएम ने ज्ञान महायज्ञ के साथ 25 हजार कुंडीय महायज्ञ के आयोजन की शुभकामना दी। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के कर्ण आश्रम के ऊपर शून्य शिखर पर साधनारत होकर आध्यात्मिक जगत की अनुभूतियों के माध्यम से भारत की जिन आध्यात्मिक ज्ञान (वेद-उपनिषदों) की परंपरा को सरल व सहज भाषा में अनुयायियों व भक्तों को स्वर्वेद के माध्यम से प्रस्तुत किया, आज उसका मूर्त रूप देखने को मिल रहा है।
सीएम ने कहा कि स्वर्वेद महामंदिर सद्गुरु सदाफलदेव महाराज की पुण्य स्मृतियों को समर्पित है। 100 वर्ष पहले उन्होंने विहंगम योग की साधना के लिए संत समाज की स्थापना की थी। आज विहंगम योग संत समाज के शताब्दी वर्ष का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ है। यह सुखद अनुभूति है कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता, जिन्होंने सर्वांगीण विकास से भारत को नई गति व पहचान दी, जिनकी वजह से भारत के विरासत पर दुनिया गौरव की अनुभूति कर सके, ऐसे यशस्वी प्रधानमंत्री के करकमलों से मंदिर धाम का लोकार्पण हुआ।
सीएम ने कहा कि काशी विश्वनाथ धाम में लोकार्पण के बाद 13 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं का आना गौरव की बात है। पूरे देश की ओर भारत की विरासत पर योग की परंपरा या जिस कुंभ में 1954 में सदगुरु सदाफल महराज ने भौतिक लीला का विसर्जन करते हुए आध्यात्मिक जगत में शून्य शिखर पर प्रवेश किया था।
उन्होंने कहा कि कुंभ की महान परंपरा को, चाहे दुनिया की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मान्यता देना हो या उत्तराखंड में केदारपुरी के पुनिर्निर्माण व महाकाल के महालोक के निर्माण का कार्य, 500 वर्षों के इंतजार के बाद अयोध्या में भगवान राम मंदिर के निर्माण का कार्य हो, हर भारतवासी का मन अपने विरासत पर गौरव की अनुभूति करता दिखाई देता है। इसका कारण है कि देश के यशस्वी नेतृत्व ने निरंतर ऊर्जा व संकल्प के साथ बिना भेदभाव के खुद को उन कार्यों के लिए समर्पित किया है। जिसे लेकर 1920 में सद्गुरु सदाफलदेव महराज जी ने जेल की यातना भी सहन की थी।
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