रांची, 27 जनवरी । 22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के दिन देश की हिंदी पट्टी में धार्मिक आस्था का जो ज्वार उमड़ा था, झारखंड भी उससे अछूता नहीं था। तकरीबन 3.75 करोड़ की आबादी वाले राज्य का कोना-कोना राममय था।
भावनाओं के इस उफान का असर अगले तीन-चार महीने तक बरकरार रहा तो भाजपा अपने पक्ष में उत्साहजनक नतीजे की उम्मीद कर सकती है।
दूसरी तरफ राज्य में हेमंत सोरेन की अगुवाई वाला झामुमो-कांग्रेस-राजद का सत्तारूढ़ गठबंधन राम मंदिर के बरअक्स झारखंड के स्थानीय मुद्दों और उससे जुड़ी भावनाओं को उभारने की कवायद में जुटा है। मतलब, यहां दोनों में किसी पक्ष के लिए लड़ाई न तो एकतरफा है और न ही आसान।
झारखंड में लोकसभा की 14 सीटें हैं। आज की तारीख में इनमें से 12 सीटें भाजपा-आजसू गठबंधन के पास हैं। 2014 के चुनाव में भी भाजपा ने इतनी ही सीटें जीती थीं। इस बार राम मंदिर जैसे सशक्त भावनात्मक मुद्दे पर गोलबंदी की कोशिश के बावजूद 2014 और 2019 के स्कोर को तीसरी बार कायम रखना बड़ी चुनौती है।
हालांकि, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी दावा करते हैं, “इस बार हम राज्य की 14 में से 14 लोकसभा सीटें जीतेंगे। देश अब भाजपा के साथ है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में आदिवासी बहुल सीटों पर भाजपा को जैसी जीत हासिल हुई, झारखंड में भी लोकसभा के साथ राज्य के विधानसभा चुनाव में वैसे ही नतीजे आएंगे। हेमंत सोरेन की अगुवाई वाली सरकार के भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने इन्हें सत्ता से बाहर करने का मूड बना लिया है।
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान झारखंड में रघुवर दास के नेतृत्व वाली भाजपा गठबंधन की सरकार थी। यह उसके लिए मुफीद स्थिति थी। नतीजा भी उम्मीदों के अनुरूप रहा था। उसने 14 में से 12 लोकसभा सीटें जीती थीं और वोटों की गिनती में राज्य की 81 में 54 विधानसभा सीटों में बढ़त बनाई थी।
इससे उत्साहित होकर उसने 2019 के विधानसभा चुनाव में ‘अबकी बार 65 पार’ का नारा दिया था, लेकिन, तब हेमंत सोरेन की अगुवाई वाले गठबंधन ने उनकी हसरतों की हवा निकालते हुए राज्य की सत्ता फतह कर ली थी।
पिछले चार सालों से सरकार चलाते हुए हेमंत सोरेन ने विगत दो-ढाई वर्षों में आदिवासियों और झारखंड के मूलवासियों के हितों को साधने वाले कई जनप्रिय फैसले लिए हैं और इनकी बदौलत अपनी पार्टी के कोर वोटरों पर पकड़ पहले की तुलना में और मजबूत की है।
इसके प्रमाण 2019 के बाद राज्य में अलग-अलग वजहों से 5 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के दौरान मिले। 5 में से सिर्फ एक सीट रामगढ़ को छोड़ चार सीटों के उपचुनावों में सत्तारूढ़ गठबंधन ने जीत हासिल की।
ईडी-सीबीआई जैसी एजेंसियों की कार्रवाई, कई अहम मसलों पर राजभवन से टकराव, माइनिंग लीज से जुड़े मुद्दे पर कानूनी एवं अदालती उलझनों और भाजपा के केंद्रीय एवं प्रांतीय नेताओं के लगातार हमलों के बावजूद सोरेन ने गठबंधन सरकार को मजबूती के साथ टिकाए रखा है।
बल्कि, ऐसे हर प्रकरण के बाद वह अपने समर्थकों-वोटरों-कार्यकर्ताओं के बीच जाते हैं और केंद्र की सरकार एवं भाजपा पर जमकर प्रहार करते हैं।
मसलन, 20 जनवरी को जब ईडी ने रांची के जमीन घोटाले को लेकर उनसे करीब सात घंटे तक पूछताछ की तो इसके तुरंत बाद वह अपने आवास से बाहर आए और कार की बोनट पर खड़े होकर वहां भारी तादाद में सुबह से जमे अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, “मैंने कोई चोरी नहीं की है। हमने उनके सभी सवालों के जवाब दिए हैं। हम झारखंड को भ्रष्टाचारियों के हाथ में कभी जाने नहीं देंगे। सरकार बहुत मुश्किल से बनी है। सरकार बनने के बाद से ही हमारे खिलाफ षड्यंत्र चल रहा है। राज्य के विकास के साथ हमने इन षड्यंत्रों को नाकाम किया है। इनके पर को कुतर कर ही हम आगे बढ़ रहे हैं। उनके ताबूत में हम आखिरी कील ठोंकेंगे।”
एससी-एसटी समुदाय के लोगों और हर वर्ग की महिलाओं को 50 वर्ष की आयु से प्रतिमाह एक हजार रुपए की पेंशन, जेपीएससी सिविल सर्विस परीक्षा में अभ्यर्थियों को अधिकतम आयु सीमा में सात साल की छूट, विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जनगणना में सरना-आदिवासी धर्म कोड लागू करने का प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित कराने, प्राइवेट कंपनियों में 40 हजार तक की तनख्वाह वाली नौकरियों में झारखंड के 75 फीसदी स्थानीय लोगों को आरक्षण, राज्यकर्मियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम, 1932 के खतियान पर आधारित डोमिसाइल पॉलिसी और एससी-एसटी एवं पिछड़ों के आरक्षण बढ़ाने के प्रस्ताव को विधानसभा से पारित कराने जैसे फैसलों के जरिए हेमंत सोरेन सरकार ने स्थानीय मुद्दों-भावनाओं के पक्ष में एक मजबूत नैरेटिव गढ़ा है।
लेकिन, सोरेन सरकार इन मुद्दों की बदौलत लोकसभा चुनाव में कितना प्रभावी अभियान चला पाएगी, यह कहना मुश्किल है। झारखंड में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में महज चार-पांच महीने का अंतराल होता है और इन दोनों चुनावों में वोटिंग का पैटर्न प्रायः अलग-अलग रहा है।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य में करीब 51 फीसदी वोट मिले थे। झामुमो और कांग्रेस को मात्र एक-एक सीट से संतोष करना पड़ा था। कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत घटकर 33.37 फीसदी पहुंच गया और वह राज्य की सत्ता से बाहर हो गयी।
इसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 41 फीसदी वोट मिले थे। वह 12 सीटों पर जीती थी। कांग्रेस का राज्य से पूरी तरह सफाया हो गया था, जबकि, झामुमो ने दो सीटें हासिल की थी।
इसी साल नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 31.28 फीसदी रहा। हालांकि वह 81 में से 37 सीटों पर विजयी रही थी। सहयोगी पार्टी आजसू के साथ मिलकर उसने सरकार बनाई थी। दो महीने बाद भाजपा ने झारखंड विकास मोर्चा के आठ में से छह विधायकों को भी अपने साथ मिला लिया था और पूरे पांच साल तक सरकार चलाई थी।
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र सोरेन कहते हैं, “झारखंड में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटिंग का पैटर्न कभी एक जैसा नहीं रहा। लोकसभा में राष्ट्रीय मुद्दे काफी हद तक प्रभावी हो जाते हैं, जबकि, विधानसभा चुनाव में छोटे-छोटे स्थानीय मुद्दे भी परिणामों में उलटफेर कर देते हैं।”
बहरहाल, इस बार भाजपा के पास राम मंदिर जैसा सशक्त भावनात्मक मुद्दा है। नरेंद्र मोदी का करिश्माई नेतृत्व तो है ही। पार्टी ने जनमानस को प्रभावित करने के लिए गांव और बूथ स्तर पर रणनीतिक मुहिम भी शुरू कर दी है।
आगामी 4 फरवरी से 11 फरवरी तक पार्टी ने ‘गांव चलो अभियान’ का कार्यक्रम तय किया है। इस दौरान भाजपा के नेता-कार्यकर्ता राज्य के 32 हजार गांवों में 24 घंटे का प्रवास करेंगे।
झारखंड विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता अमर बाउरी कहते हैं, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर गांव-गांव में स्वतःस्फूर्त समर्थन का वातावरण है। पार्टी के कार्यकर्ता मोदी जी के दूत बनकर हर गांव में दस्तक देंगे। अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा संकल्प से सिद्धि तक का सफर है। जन-जन में अद्भुत उत्साह है।”
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