November 22, 2024
Evergreen

आजादी से 40 साल पहले, जर्मनी में भीकाजी कामा ने फहराया था पहला भारतीय तिरंगा

आजादी की महान योद्धा भीकाजी पटेल कामा, जिन्होंने जर्मनी में पहली बार भारतीय ध्वज फहराया था, उनका नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित है। भीकाजी कामा उस समय उन सभी महिलाओं के लिए हौंसला बनकर उभरी, जो स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से डर रही थी।

Bhikaiji Cama .

2 अगस्त, 1907 को जर्मनी के स्टटगार्ट में एक अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन आयोजित किया जा रहा था। इस सम्मेलन में यूरोप, अमेरिका और उत्तरी अफ्रीका जैसे देशों ने हिस्सा लिया था। इस दौरान 46 वर्षीय भीकाजी कामा भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का पहला संस्करण फहराया दिया।

भीकाजी कामा देश से ब्रिटिश राज को समाप्त करना चाहती थीं। साथ ही भारत की आजादी को भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के ध्यान में लाना चाहती थी और जिसमें वो काफी हद तक सफल रही थी। उन्होंने तिरंगा फहराते हुए कहा – यह स्वतंत्र भारत का झंडा है। मैं सभी सज्जनों से अपील करता हूं कि खड़े होकर ध्वज को सलामी दें। उन्होंने ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता की मांग की।

हालांकि, भीकाजी कामा और श्याम जी कृष्ण वर्मा ने संयुक्त रूप से जो झंडा बनाया था, उसमें हरे, भगवा और लाल रंग की तीन पट्टियां थीं। इसमें सबसे ऊपर हरा रंग था, जिसपर 8 कमल के फूल बने हुए थे। ये 8 फूल उस वक्त भारत के 8 प्रांतों को दर्शाते थे। बीच में भगवा रंग की पट्टी थी, जिसपर वंदे मातरम लिखा था। सबसे नीचे नीले रंग की पट्टी पर सूरज और चांद बने थे।

भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को सोराबजी फ्रामजी पटेल और उनकी पत्नी जयजीबाई सोराबाई पटेल के यहां हुआ था। उनका परिवार संपन्न पारसी परिवार था। उनके पिता एक प्रसिद्ध व्यापारी थे। उस वक्त भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन जड़ें जमा रहा था। इससे प्रभावित होकर भीकाजी बहुत कम उम्र से ही उन आंदोलन से जुड़ गई।

भीकाजी ने अपनी शिक्षा एलेक्जेंड्रा गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन से की। वहीं अलग-अलग भाषाओं को सीखने के लिए हमेशा उत्सुक रहती थी। उनकी शादी एक प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा के साथ हुईं। हालांकि सामाजिक-राजनीतिक मतभेदों के कारण उनके दांपत्य जीवन में कठिनाइयां आने लगी। रुस्तमजी कामा ब्रिटिशों को पसंद करते थे। जबकि भीकाजी दिल से राष्ट्रवादी थीं और मानती थीं कि ब्रिटिशों ने भारत का शोषण किया है।

बॉम्बे में सन 1896 में प्लेग बीमारी का कहर था। उस वक्त लोगों की मदद करते-करते भीकाजी भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं, जब उनकी तबियत ज्यादा बिगड़ी तो उन्हें बेहतर इलाज के लिए ब्रिटेन भेजा गया, जहां वह स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गजों से मिली।दादाभाई नौरोजी, लाला हरदयाल, कृष्ण वर्मा जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर उन्होंने कई सभाओं को संबोधित किया।

उसकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को देखते हुए लंदन में ब्रिटिश शासकों ने चेतावनी दी कि जब तक वह स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन को बंद नहीं करती, तब तक उसे भारत लौटने से रोक दिया जाए। ऐसे में भीकाजी ने यूरोप में निर्वासित रहने का विकल्प चुना। 1909 में, वह फ्रांस चली गईं और मुंचेरशाह बुजरेरजी गोदरेज, सिंह रेवाभाई राणा जैसे अन्य दिग्गजों से मिलीं और पेरिस इंडियन सोसाइटी की स्थापना की। कई अन्य कार्यकर्ताओं के साथ, उन्होंने प्रतिबंधित देशभक्ति गीत वंदे मातरम को लोगों तक पहुंचाया।

भीकाजी ने कई यूरोपीय देशों, अमेरिका और मिस्र की यात्रा की ताकि भारतीय मुद्दों पर समर्थन हासिल किया जा सके। यूरोप में भीकाजी कामा का निर्वासन 1935 तक जारी रहा। इस दौरान उन्हें लकवा मार गया, जिसके चलते उन्होंने ब्रिटिश सरकार से ‘घर वापसी’ की अनुमति देने का अनुरोध किया।

उनकी नाजुक हालत को देखते हुए जब ब्रिटिश सरकार को विश्वास हुआ कि वह अब राजनीति में और सक्रिय नहीं रह सकती तो उन्हें नवंबर 1935 में 33 साल बाद अपनी मातृभूमि लौटने की अनुमति दे दी गई।अपने वतन लौट जाने के बाद वह तकरीबन 9 महीने तक जीवित रही। उनका निधन 13 अगस्त 1936 को 75 साल की उम्र में हो गया।

अपनी मृत्यु से पहले, भीकाजी ने अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा बांद्रा में बाई अवाबाई फ्रामजी पटेल अनाथालय, लड़कियों के लिए और मझगांव में एक पारसी अग्नि मंदिर को दान कर दिया था।

काईद नजमी –आईएएनएस

Leave feedback about this

  • Service