December 22, 2024
National

साड़ी पर उकेरी जाती है 52 बूटी, नालंदा के हुनरमंद बड़े मान से गढ़ते हैं बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह

52 butis are engraved on the saree, the artisans of Nalanda carve the symbols of Buddhism with great respect.

नालंदा (बिहार), 21 सितंबर हर साल 21 दिसंबर को विश्व साड़ी दिवस मनाया जाता है। साड़ी भारतीय महिलाओं का एक बेहद खास परिधान है, जो उनकी सुंदरता और परंपरा को दर्शाती है। बिहार के नालंदा की 52 बूटी इसी 6 गज के कपड़े यानि साड़ी को खूबसूरत रूप देती है।

नालंदा जिले के बिहारशरीफ स्थित बासवन बिगहा गांव में तैयार की जाने वाली बावन बूटी शांति और सद्भावना का संदेश देती है। यह साड़ी देश और विदेश में बेहद मशहूर है। फिर भी इसे बुनने वालों को शिकायत है कि इसे वो मान नहीं मिल रहा जिसकी यह हकदार है। कहते हैं, उपेक्षा के चलते यह कला अब धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है।

बावन बूटी को साड़ी पर रेशम के धागों से काढ़ा जाता है। इसे तैयार करने में 10 से 15 दिन लगते हैं। खास बात यह है कि पूरे कपड़े पर एक ही डिजाइन को 52 बार उकेरा जाता है। इसमें बौद्ध धर्म के प्रतीक जैसे कमल का फूल, पीपल के पत्ते, बोधि वृक्ष, त्रिशूल, सुनहरी मछली, बैल, धर्म चक्र आदि का उपयोग किया जाता है। ये प्रतीक न केवल बौद्ध धर्म की पहचान हैं, बल्कि भगवान बुद्ध की महानता को भी दर्शाते हैं।

इस कला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले कपिल देव प्रसाद अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बहू नीलू कुमारी इसे बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। उनका मानना है कि अगर सरकार इसे जीआई टैग प्रदान कर दे तो इस साड़ी की मांग बाजार में फिर से बढ़ सकती है। इससे न केवल रोजगार के अवसर पैदा होंगे, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के आत्मनिर्भर भारत के सपने को भी बल मिलेगा।

आज इस व्यवसाय से केवल 80-100 लोग जुड़े हैं, जबकि पहले हजारों कारीगर इस कला से अपनी आजीविका चलाते थे। कई कारीगर बेहतर रोजगार की तलाश में पलायन भी कर चुके हैं।

कारीगर विवेकानंद बताते हैं कि वह अपने पूर्वजों की इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, हालांकि यह उनके मध्यमवर्गीय परिवार के लिए मुश्किलों भरा है।

लोग कहते हैं कि इस कला की शुरुआत सैकड़ों साल पहले गया के तत्वा टोला में हुई थी। तब इसकी इतनी मांग थी कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसे खास मेहमानों को तोहफे में भेंट करते थे।

बावन बूटी साड़ी में उपयोग किए जाने वाले रेशमी धागे रेशम के कीड़े से तैयार किए जाते हैं। कीड़े के चारों ओर बनने वाले खोल, जिसे “काकुन” कहा जाता है, को गर्म पानी में डालकर रेशम निकाला जाता है। इसी रेशम से कढ़ाई की जाती है।

उम्मीद अभी भी जिंदा है। पीएम से यह अपेक्षा और आशा है कि वह बिहार की इस हस्तकला को जीवित रखने का पूरा प्रयास करेंगे। सरकार और समाज के सहयोग से यह अनूठी कला फिर से नई ऊंचाइयों पर पहुंच सकती है और साड़ी की इस परंपरा को सहेजा जा सकता है।

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