वाराणसी, 18 अप्रैल । “देखी तुमरी काशी, जहां विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरजी अविनाशी…” हिंदी साहित्यकार भारतेन्दू हरिश्चंद्र की यह कविता काशी की सुंदरता का उल्लेख करती है। इसी सुंदरता और निरालेपन को देखने के लिए हर साल 10 करोड़ से ज्यादा पर्यटक शिवनगरी पहुंचते हैं। धार्मिक ग्रंथ बताते हैं कि 64 योगिनियां भी काशी आई थीं। मगर, उन्हें यह नगरी इतनी प्रिय लगी कि वे यहीं पर रह गईं। माता की चौसट्टी देवी के रूप में पूजा होती है।
स्कंद पुराण के काशीखंड में वर्णित है कि चौसट्टी माता के दर्शन-पूजन से पाप नष्ट हो जाते हैं। नवरात्र में इनकी आराधना से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
चौसट्टी घाट स्थित चौसट्टी या चौसठ योगिनी मंदिर के पीछे की कथा भी बहुत सुंदर है। ज्योतिषाचार्य, यज्ञाचार्य एवं वैदिक कर्मकांडी पं. रत्नेश त्रिपाठी ने महिमा का बखान किया।
पं. रत्नेश त्रिपाठी ने बताया, “मान्यता है कि आनंदवनम या काशी में प्राचीन काल में दिवोदास नाम के राजा थे, जो धार्मिक प्रवृत्ति के थे लेकिन उन्हें भगवान शिव की आराधना पसंद नहीं थी। उन्होंने देवताओं के सामने शर्त रखी थी कि यदि शिव काशी छोड़ कर चले जाएं तो वे काशी को स्वर्ग की तरह बना देंगे। इस पर देवताओं ने भोलेनाथ से प्रार्थना की कि वे काशी छोड़ कर कैलाश चले जाएं। भोलेनाथ ने उनकी प्रार्थना मान ली और कैलाश पर्वत पर जाकर रहने लगे।”
उन्होंने आगे बताया, “कुछ दिनों के बाद बाबा विश्वनाथ ने 64 योगिनियों को काशी भेजा। योगिनियों को काशी इतनी भा गई कि उन्होंने यहीं पर रहने की प्रार्थना भोलेनाथ से की। इन्हीं को चौसट्टी देवी के रूप में पूजा जाता है।”
काशी के निवासी ज्ञानेश्वर पाण्डेय ने बताया, “मंदिर में महिषासुर मर्दिनी और चौसट्टी माता की प्रतिमा स्थापित है, जिनके दर्शन-पूजन से पुण्य की प्राप्ति होती है। मंदिर परिसर में मां भद्र काली की भी प्रतिमा है, मान्यता है कि दर्शन-पूजन से समस्त मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।”
चौसट्टी घाट के क्षेत्र में स्थित मंदिर में मां महिषासुर मर्दिनी और मां काली का स्वरूप भी स्थित है, जहां प्रतिदिन दर्शन-पूजन के लिए भक्तगण बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। नवरात्र और होली में यहां पर भक्तों का तांता देखने को मिलता है। मान्यता है कि बिना माता को गुलाल चढ़ाए होली की शुरुआत नहीं होती है।
वहीं, चौसट्टी घाट का निर्माण इसी नाम से बंगाल के राजा प्रतापादित्य ने सोलहवीं शताब्दी में कराया था। जर्जर होने पर 18वीं शताब्दी में बंगाल के राता दिग्पतिया ने इसका फिर से निर्माण कराया था।
Leave feedback about this