वर्ष 2025 बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के लिए न तो उपलब्धियों का उत्सव रहा और न ही पराजय की इबारत। यह साल पार्टी के लिए आत्ममंथन, संगठनात्मक कसावट और 2027 की बिसात बिछाने का रहा। कभी उत्तर प्रदेश की सत्ता की धुरी रही बसपा, 2025 में अपनी खोई जमीन वापस पाने की जद्दोजहद में दिखी। हालांकि, साल के अंत में नेशनल को-ऑर्डिनेटर आकाश आनंद के घर जन्मी पुत्री को बहुजन मिशन के प्रति समर्पित करने की घोषणा ने पार्टी सुप्रीमो मायावती को निजी तौर पर खुशी जरूर दी।
राजनीतिक विश्लेषक ने कहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद 2025 की शुरुआत बसपा के लिए कठिन रही। चुनावी नतीजों ने संगठन और रणनीति पर सवाल खड़े किए। भाजपा के मजबूत संगठन और समाजवादी पार्टी की आक्रामक विपक्षी राजनीति के बीच बसपा को राजनीतिक स्पेस बचाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ा। बिहार विधानसभा चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा और उसे महज एक सीट से संतोष करना पड़ा। हालांकि बसपा नेतृत्व ने पराजय को विराम नहीं, पुनर्निर्माण का अवसर बताया।
पार्टी ने साफ किया कि वह न किसी की ‘बी-टीम’ बनेगी और न ही अवसरवादी गठबंधनों का हिस्सा। 2025 में मायावती फिर से पार्टी की राजनीति के केंद्र में रहीं। उन्होंने सार्वजनिक मंचों और आंतरिक बैठकों में यह संदेश दोहराया कि बसपा का मूल लक्ष्य दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों का राजनीतिक-सामाजिक सशक्तिकरण है। कांशीराम की विचारधारा से समझौते की किसी भी संभावना को खारिज करते हुए मायावती ने संगठन को चेताया कि ढुलमुल रवैया, गुटबाजी और निष्क्रियता अब स्वीकार नहीं की जाएगी। इसके बाद प्रदेश और मंडल स्तर पर पदाधिकारियों में फेरबदल हुआ।
इसी क्रम में आकाश आनंद को लेकर लिए गए सख्त फैसले—पहले हटाना और 41 दिन बाद वापसी—ने यह संकेत दिया कि नेतृत्व अनुशासन के सवाल पर कोई नरमी नहीं बरतेगा। साल 2025 में बसपा की सबसे बड़ी कमजोरी जमीनी संगठन रही। इसे दुरुस्त करने के लिए जिलों में कैडर मीटिंग्स, समीक्षा बैठकें और बहुजन संवाद कार्यक्रम शुरू किए गए। डिजिटल और सोशल मीडिया पर मौजूदगी बढ़ाने की कोशिशें हुईं, लेकिन भाजपा और सपा की तुलना में यह प्रयास अभी कमजोर ही रहे। गतिविधियों से इतना जरूर स्पष्ट हुआ कि पार्टी निष्क्रिय नहीं है, पर उसकी रफ्तार सीमित है।
वैचारिक मोर्चे पर बसपा ने खुद को स्पष्ट रूप से अलग रखा। भाजपा पर संविधान कमजोर करने और आरक्षण पर दोहरे रवैये के आरोप लगाए गए, जबकि समाजवादी पार्टी पर दलित हितों की उपेक्षा और राजनीतिक अवसरवाद का ठप्पा लगाया गया। पार्टी ने दो टूक कहा कि उसकी राजनीति सत्ता से ज्यादा सम्मान और अधिकार की है। बसपा ने 2025 को खुलकर 2027 विधानसभा चुनाव की तैयारी के तौर पर इस्तेमाल किया। नेतृत्व ने संकेत दिए कि पार्टी चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ेगी। उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया को समय से मजबूत करने, जातिगत समीकरणों के साथ युवा और महिला मतदाताओं पर फोकस की रणनीति पर मंथन हुआ।
हालांकि, जमीनी स्तर पर अभी तक ऐसा कोई बड़ा आंदोलन नहीं दिखा, जिससे निर्णायक बढ़त का दावा किया जा सके। राजनीतिक रूप से सबसे बड़ी चुनौती पार्टी का परंपरागत दलित वोट बैंक रहा। भाजपा की सामाजिक योजनाओं और राजनीतिक प्रतिनिधित्व ने इस वर्ग में पैठ बनाई, जो बसपा के लिए चिंता का कारण बनी। इसके बावजूद कुछ इलाकों में दलित समाज का भावनात्मक जुड़ाव अब भी पार्टी के साथ दिखा, जिसे नेतृत्व भविष्य की नींव मान रहा है, लेकिन इस वोट बैंक पर विरोधी पार्टी कांग्रेस और सपा की निगाहें लगी हुई हैं। सबसे ज्यादा सपा इस वोट बैंक को अपने लाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। इसके लिए उसने आंबेडकर वाहिनी का गठन करके लगातार मूवमेंट चला रही है।
राजनीतिक विश्लेषक वीरेंद्र सिंह रावत बताते हैं कि कुल मिलाकर, 2025 बसपा के लिए संघर्ष और आत्ममंथन का वर्ष रहा। यह न तो पुनरुत्थान का निर्णायक मोड़ बना और न ही पतन की मुहर। बसपा आज भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में संभावनाओं से भरी है, पर चुनौतियों से घिरी हुई है। असली परीक्षा 2027 में होगी, लेकिन इस वर्ष कांशीराम की रैली में उमड़ी भीड़ ने उन्हें संजीवनी प्रदान की है, जिस कारण संगठन में एक बार ऑक्सीजन मिली है।

