December 1, 2025
National

डॉ. अचला नागर: बाबूजी की ‘बिट्टो’, जिन्होंने कलम की ताकत से ‘बागबान’ को बनाया राष्ट्रीय विमर्श

Dr. Achala Nagar: Babuji’s ‘Bitto’, who, with the power of her pen, made ‘Baghban’ a national topic of discussion

साल था 2003, जब अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ने बड़े पर्दे पर एक असहाय, लेकिन गरिमामय वृद्ध दंपति का किरदार निभाया, तो पूरा देश रो पड़ा। ‘बागबान’ सिर्फ एक सुपरहिट फिल्म नहीं थी, यह भारतीय परिवारों के बदलते मूल्यों पर एक तीखा और मार्मिक आईना थी। बुढ़ापे में माता-पिता की उपेक्षा का यह संवेदनशील विषय जिसने हर दर्शक को सोचने पर मजबूर कर दिया, वह किसी विशुद्ध कॉमर्शियल लेखक की कलम से नहीं निकला था। इसके पीछे थीं डॉ. अचला नागर, एक साहित्यिक विद्वान, जिन्हें हिंदी साहित्य के महान लेखक अमृतलाल नागर अपनी ‘बिट्टो’ कहकर पुकारते थे।

यही वह जगह है जहां डॉ. अचला नागर का असाधारण व्यक्तित्व सामने आता है। एक तरफ हिंदी साहित्य में पीएचडी की उपाधि, दूसरी तरफ व्यावसायिक हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सामाजिक मुद्दों को सफलतापूर्वक बड़े पर्दे पर उतारने की महारत। उन्होंने साहित्य और सिनेमा के बीच एक ऐसा रचनात्मक सेतु बनाया, जिस पर चलकर सामाजिक विमर्श सीधे आम जनता तक पहुंच गया।

डॉ. अचला नागर का जन्म 2 दिसंबर 1939 को लखनऊ में हुआ था, लेकिन उनके रग-रग में हिंदी साहित्य के संस्कार थे। हिंदी के युग-प्रवर्तक लेखक अमृतलाल नागर की बेटी होने के नाते, उन्होंने बचपन से ही यथार्थवादी और नैतिक मूल्यों वाले लेखन की विरासत को आत्मसात किया। उनके लिए लेखन केवल पेशा नहीं, बल्कि एक पारिवारिक परंपरा थी। खुद उन्होंने ही बताया कि लिखने-पढ़ने का उनका शौक पिताजी के कागजों पर नजर दौड़ाने से शुरू हुआ। पिता द्वारा गांधीजी की हत्या पर लिखा एक मार्मिक पत्र उन्हें ‘मानवता का मतलब’ सिखा गया और यही मानवता का पाठ उनकी आगे की पटकथाओं का मूल आधार बना।

उन्होंने विज्ञान (बीएससी) में स्नातक की डिग्री लेने के बाद, उन्होंने एमए किया और हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त की। यह तैयारी उन्हें उस दौर के व्यावसायिक लेखकों से अलग करती है, क्योंकि उनकी कहानियों की जड़ें गहन अध्ययन, शोध और यथार्थ की समझ में थीं।

लखनऊ में जन्म लेने के बावजूद, आगरा से उनका गहरा नाता रहा। ब्रज की माटी से उनका यह जुड़ाव उन्हें भारतीय संस्कृति की भाषाई और भावनात्मक बारीकियों को समझने में सहायक रहा। आगरा में रंगमंच (थिएटर) में सक्रिय भागीदारी ने उन्हें संवादों की सीधी और प्रभावी प्रस्तुति की कला सिखाई। यह मंच का अनुभव ही था जिसने उनके सिनेमाई संवादों को वह तीक्ष्णता और सजीवता दी, जिसके लिए उन्हें आगे चलकर पुरस्कार मिला।

डॉ. नागर की सिनेमाई यात्रा 1982 में शुरू हुई, जब वह महान फिल्मकार बीआर चोपड़ा की निर्माण संस्था ‘बीआर फिल्म्स’ से जुड़ीं। यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था। उन्होंने अपनी पहली बड़ी फिल्म ‘निकाह’ की पटकथा लिखी, जिसने आते ही बॉक्स ऑफिस पर हंगामा मचा दिया और एक गंभीर सामाजिक बहस छेड़ दी।

‘निकाह’ की विषय-वस्तु मुस्लिम समाज में ‘ट्रिपल तलाक’ और महिला के व्यक्तिगत अधिकारों के जटिल मुद्दे पर केंद्रित थी। यह 80 के दशक के व्यावसायिक सिनेमा के लिए एक साहसी कदम था। डॉ. नागर की साहित्यिक कलम ने इस संवेदनशील विषय को भावनात्मक जटिलता और विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत किया। इस सफलता का परिणाम था 1983 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ संवाद के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक सामाजिक सरोकार वाली फिल्में दीं, जिनमें ‘आखिर क्यों’, ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’, ‘निगाहें’, ‘नगीना’, ‘ईश्वर’ और ‘सदा सुहागिन’ शामिल हैं। ‘आखिर क्यों’ को आज भी भारतीय स्त्री की सशक्त अभिव्यक्ति के लिहाज से एक महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है। उन्होंने पुरुष वर्चस्ववाद और सामाजिक रूढ़ियों को एक व्यावसायिक सांचे में ढाला, जिससे उनका संदेश व्यापक रूप से प्रसारित हो सका।

हालांकि, डॉ. नागर के करियर की सबसे बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक घटना ‘बागबान’ (2003) थी। यह फिल्म महज एक कहानी नहीं थी, यह एक राष्ट्रव्यापी भावनात्मक चेतना बन गई। सेवानिवृत्ति के बाद माता-पिता के अलगाव और बच्चों द्वारा उनके प्रति दायित्वों की उपेक्षा का मार्मिक चित्रण इतना प्रभावी था कि यह भारतीय पारिवारिक संरचना पर एक अनिवार्य विमर्श बन गया।

सिनेमा में अपार सफलता के बावजूद, डॉ. अचला नागर ने साहित्य के प्रति अपनी निष्ठा कभी नहीं छोड़ी। एक समय ऐसा आया जब वह सात साल तक टेलीविजन के ‘डेली सोप’ लिख रही थीं, जहां से उन्हें लगभग 4 लाख रुपए प्रति माह की बहुत अच्छी आय हो रही थी।

लेकिन, जब 2015 में उनके पिता अमृतलाल नागर की शताब्दी की तैयारी शुरू हुई, तो उन्होंने एक साहसी निर्णय लिया। उन्हें याद आया कि उनके पिता ने उनसे कहानियां नहीं, बल्कि एक उपन्यास लिखने की इच्छा जाहिर की थी। अपने पिता की साहित्यिक आकांक्षा को पूरा करने के लिए, उन्होंने एक मिनट में लाखों की मासिक आय वाले ‘डेली सोप’ लेखन का त्याग कर दिया।

इसके बाद उन्होंने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘छल’ पूरा किया। यह उपन्यास परिवार और सौहार्द के ढांचे पर ग्रहण लगने और फिर से अपनी आभा पा लेने की कहानी है। उनके अन्य साहित्यिक कार्यों में संस्मरण ‘बाबूजी बेटाजी एण्ड कंपनी’ (जो नागर परिवार की साहित्यिक विरासत का अंतरंग चित्रण है) और कहानी संग्रह ‘नायक-खलनायक’ तथा ‘बोल मेरी मछली’ शामिल हैं।

डॉ. अचला नागर की विरासत दो क्षेत्रों में फैली हुई है। उन्हें फिल्म ‘निकाह’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार और फिल्म ‘बाबुल’ (एवं समग्र योगदान) के लिए दादा साहेब फाल्के अकादमी सम्मान मिला, वहीं हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें साहित्य भूषण पुरस्कार और यशपाल अनुशंसा पुरस्कार (हिंदी संस्थान, उत्तर प्रदेश) से सम्मानित किया गया।

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