N1Live Entertainment कविता की महफिल से मुंबई नगरिया तक जिनके कलमों ने लोगों को चखाया ‘बनारसी पान’ का स्वाद
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कविता की महफिल से मुंबई नगरिया तक जिनके कलमों ने लोगों को चखाया ‘बनारसी पान’ का स्वाद

From poetry gathering to Mumbai city, whose pens made people taste 'Banarasi paan'

नई दिल्ली, 13 सितंबर । कविता शौक़ के लिए लिखी जाए तो डायरी के पन्नों में कहीं दबकर दम तोड़ देती है। लेकिन, यही कविता जब डायरी के पन्नों से निकलकर संगीत की सरिता से जुड़ फिजाओं में बह निकले तो फिर कहना ही क्या। लोगों को इसी तरह लालजी पाण्डेय ने अपनी कविता से खूब रिझाया। कविताओं में भोजपुरी और पूर्वांचल की मिठास घोले शब्द जब उन्होंने पन्नों पर उकेरे तो सुनने वालों ने इसका खूब मजा लिया।

लालजी पाण्डेय को लेकिन दुनिया इस नाम से जान नहीं पाई। दरअसल उनको उनके दोस्तों ने एक उपनाम दिया था ‘अंजान’ और इसी नाम ने उन्हें असली पहचान दे दी। कला संभाग से उनका कोई नाता नहीं रहा वह तो कॉमर्स के छात्र थे लेकिन, लेखनी इतनी सधी की शब्द जो लिखे वह फिजाओं में गूंजे तो साज स्वतः उनके शब्दों के लिए संगीत तैयार करने लगे।

दरअसल, सही मायने में जानें तो मुंबई की फिल्मी दुनिया को यह नायाब हीरा जो मिला वह गायक मुकेश की खोज था। मुकेश एक बार अपने कार्यक्रम के सिलसिले में बनारस आए थे और यहां उन्होंने किसी के आग्रह पर अंजान की लिखी कुछ पंक्तियां उनके मुंह से सुनी और फिर उन्हें कहा कि आपको तो फिल्मों के लिए गाने लिखना चाहिए।

अंजान जी जाना तो मुंबई चाहते थे क्योंकि बनारस की आबो-हवा वैसे भी उन्हें भा नहीं रही थी, ऊपर से अस्थमा की बीमारी उनकी सांसों को रोक रही थी। ऐसे में डॉक्टर उनको सलाह दे भी रहे थे कि आपको जिंदा रहना है तो यह शहर छोड़ दीजिए। ऐसे में बीमार अंजान बनारस छोड़ मुंबई के लिए निकल गए। मुंबई ने भी अंजान को संभाला नहीं मायानगरी ने खूब दर-दर की ठोकरें खिलाई। कई रातें अंजान ने ट्रेनों में सोकर गुजारी क्योंकि उनके पास सिर छुपाने की जगह नहीं थी। किसी अपार्टमेंट के नीचे बिस्तर डालकर सो जाते।

लेकिन, मां सरस्वती मेहरबान हो तो फिर कहना ही क्या! सफलता देर से ही सही लेकिन मिलती जरूर है। साल था 1953 प्रेमनाथ उन दिनों ‘प्रिज़नर ऑफ़ गोलकोण्डा’ का निर्माण कर रहे थे। उस समय मुकेश साहब को अंजान की याद आई और उन्होंने उनकी मुलाकात प्रेमनाथ से करवा दी और उन्होंने पहली बार बतौर गीतकार किसी फिल्म के लिए गाना लिखा। हालांकि फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही लेकिन अंजान को काम मिलता रहा, फिर भी वह नाम और दाम के लिए संघर्ष करते रहे। उनके संघर्षों में कोई कमी नहीं आई।

फिर साल 1963 में फिल्म आई ‘गोदान’ जिसके गीत अंजान ने लिखे थे। इसका एक गाना ‘पिपरा के पतवा सरीखा डोले मनवा, कि जियरा में उठत हिलोर, हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा, जरत रहत दिन रैन’ ने अंजान के नाम को पहचान दिला दी लेकिन बैंक बैलेंस तब भी वैसे का वैसा ही रहा।

इसके बाद गुरुदत्त ने एक फिल्म बनाने की सोची ‘बहारें फिर भी आएंगी’ इसके गाने कैफ़ी आज़मी, शेवन रिज़वी और अज़ीज़ कश्मीरी लिख रहे थे। इसी बीच गुरुदत्त की अचानक मौत हो गई और फिल्म का निर्माण रुक गया। फिर उनके भाई आत्माराम ने इस फिल्म को पूरा करने का बीड़ा उठाया। फिल्म के दो गाने लिखने का काम अंजान को मिला। इसमें से एक गीत ‘आपके हसीन रुख़ पे आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है’ को रफी साहब ने गाया था। फिल्म रिलीज के साथ इस गाने ने हंगामा मचा दिया।

फिर कल्याणजी- आनंदजी के साथ जी.पी. सिप्पी की फिल्म बन्धन (1970) के लिए अंजान ने गीत लिखे और असल मायने में अंजान की किस्मत यहीं से खुली।

अंजान एक बात हमेशा कहते थे कि मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री भगोड़े आशिक को कभी नहीं संवारती वह तो सच्चे आशिक को चाहती है जो संघर्ष के समय भी उसे छोड़कर नहीं जाता। वह हमेशा यह भी कहते थे कि यह इंडस्ट्री जन्नत है जहां हूरें मिलती हैं, पैसा मिलता है, शोहरत मिलती है लेकिन, जन्नत में जाने के लिए मरना पड़ता है और इसके लिए तैयार रहना चाहिए।

‘इ है बम्बई नगरिया तू देख बबुआ’, ‘जिसका मुझे था इंतज़ार’, ‘जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों’, ‘कब के बिछड़े’, ‘डिस्को डांसर’, ‘यशोदा का नंदलाला’, ‘खाई के पान बनारस वाला’, ‘ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना’, ‘रोते हुए आते हैं सब, हंसता हुआ जो जाएगा’, ‘काहे पैसे पे इतना गुरूर करे है’, ‘लुक छिप लुक छिप जाओ न’, ‘आज रपट जाएं तो हमें ना उठइयो’, ‘छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा’, ‘इन्तहा हो गयी इंतज़ार की’, ‘तू पागल प्रेमी आवारा’, ‘गोरी हैं कलाइयां, तू लादे मुझे हरी हरी चूड़ियां’, ‘मानो तो मैं गंगा माँ हूं’, ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ जैसे अनगिनत सुपरहिट गाने अंजान की कलम के ही मोती हैं।

300 से ज्यादा फिल्मों के 1500 से ज्यादा गानों को अपनी कलम से रंग देने वाले अंजान को अचानक लकवा मार गया और फिर वह 4-5 साल तक बिस्तर पर ही पड़े रहे। फिर 67 साल की उम्र में 13 सितंबर 1997 को उनका निधन हो गया। अंजान को कभी पुरस्कार और सम्मान नहीं मिला लेकिन, उन्हें इस बात की खुशी थी कि उन्होंने जीते जी अपने बेटे शीतला पांडे (समीर) की सफलता देख ली और उसे फिल्मफेयर पुरस्कार मिलने की खुशी महसूस कर पाए।

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