पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक मामले में पंजाब पुलिस की “लंबी सरकारी सुस्ती” और “उदासीन दृष्टिकोण” के लिए कड़ी आलोचना की है, जिसमें लगभग 16 वर्ष पहले तैयार की गई रद्दीकरण रिपोर्ट, वर्तमान याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप तक अदालत में प्रस्तुत नहीं की गई थी।
राज्य पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाते हुए पीठ ने यह भी निर्देश दिया कि यह राशि दोषी अधिकारियों के वेतन से वसूल की जा सकती है।
न्यायमूर्ति सुमीत गोयल ने याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि अभियोजन का अधिकार कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि एक “गंभीर सार्वजनिक विश्वास है, जिसका प्रयोग अत्यंत तत्परता और पारदर्शिता के साथ किया जाना चाहिए”। अदालत ने चेतावनी दी कि इस संप्रभु दायित्व का शीघ्र निर्वहन न करने से “न्याय की प्रभावकारिता और निष्पक्षता में नागरिकों का विश्वास कमज़ोर हो सकता है।”
यह देखते हुए कि विधायिका ने एजेंसियों को कुछ विवेकाधिकार देने के लिए अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने हेतु अनिवार्य समय सीमा निर्धारित करने से जानबूझकर परहेज किया है, अदालत ने स्पष्ट किया कि “यह विवेकाधिकार न तो पूर्ण है और न ही बेलगाम है”।