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दीपावली पर चाइनीज सामानों के आगे हिचकोले खाती भारतीय स्थानीय कला

Indian local art hesitates in front of Chinese goods on Diwali

नालंदा, 25 अक्टूबर दीपावली का त्योहार सब के लिए खुशियां लेकर आता है। उद्योग हो या व्यापार, सभी को दीपावली से खास उम्मीदें होती है। दीपावली में लोग दिल खोलकर खर्च करते हैं। इससे न सिर्फ उद्योगों को बढ़ावा मिलता है, बल्कि छोटे व्यापारियों और कामगारों के रोजगारों के अवसर कई गुना तक बढ़ जाते हैं। इस दौरान ऐसा ही एक रोजगार बूस्ट दीपक बनाने वाले लोगों को मिलता है।

दीपावली के दिन प्रज्वलित होने वाले करोड़ों दीपक इन लोगों की जीवन में खुशियां लेकर आते हैं। लेकिन परंपरागत दीयों का यह कारोबार अब नई चुनौतियों का सामना कर रहा है। एक तरफ चाइनीज लाइटों और इलेक्ट्रिक सजावट की बढ़ती लोकप्रियता है, तो दूसरी तरफ मिट्टी के दीयों की मांग घटती नजर आ रही है।

नालंदा के बिहार शरीफ में दीपक बनाने वाले कुम्हार पप्पू पंडित कहते हैं, “बाजार अब दो हिस्सों में बंट गया है। कुछ लोग दीयों में रुचि दिखाते हैं, जबकि अन्य चाइनीज लाइट्स को पसंद कर रहे हैं। इससे हमारी बिक्री पर असर पड़ा है।” वह बताते हैं कि 100 रुपये के दीयों के सेट लोग 70-80 रुपये में ही खरीदना चाहते हैं। इस तरह, बिक्री में कमी और मोलभाव की प्रवृत्ति उनके लिए मुश्किलें बढ़ा रहा है।

पप्पू पंडित ने यह भी कहा कि मिट्टी से दीये बनाने में मेहनत और लागत दोनों अधिक होते हैं। “दीयों का निर्माण काफी मेहनत और लागत से होता है। मिट्टी लाने से लेकर दीये पकाने तक पुआल और कोयला का इस्तेमाल होता है। त्योहारों के मौसम में भी हमारी रोजाना कमाई 300 से 500 रुपये के बीच ही रहती है।”

उन्होंने कहा, “दीपावली और छठ के बाद कुम्हारों के पास काम कम हो जाता है, जिससे उन्हें मजदूरी करने पर मजबूर होना पड़ता है। हमारा काम मौसम के हिसाब से चलता है। गर्मी में घड़े और सुराही बिकते हैं, जबकि ठंड में कुल्हड़। त्योहारों के बाद नियमित आय मुश्किल हो जाती है। परिवार का खर्च इसी काम से चलता है। हम बड़े आदमी तो नहीं बन सकते, लेकिन गुज़ारा हो जाता है।”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विश्वकर्मा योजना के बारे में पूछे जाने पर, पप्पू ने कहा कि यह योजना उनके जैसे कारीगरों के लिए एक अच्छी पहल है। हालांकि, उन्होंने अभी इसके लिए आवेदन नहीं किया है।

कुम्हार राजू पंडित ने बताया कि दीपावली के समय उनके यहां लगभग 10 हजार दीये बिक जाते हैं, और इस सीजन में कुल मिलाकर 60 हजार रुपये की बिक्री होती है। लेकिन पहले की अपेक्षा बाजार की स्थिति बदली है। “पहले मिट्टी की कोई कद्र नहीं थी। अगर हम 50 रुपये में दीया बेचते, तो ग्राहक 30 रुपये देने को कहते। आज भी बहुत से लोग मोल भाव करते हैं।” उन्होंने दीयों के महत्व पर जोर देते हुए कहा, “मिट्टी का दीया शुद्धता का प्रतीक है। इसके बिना दीपावली पूरी नहीं हो सकती।”

गणेश भगवान की प्रतिमा बनाने में महारत हासिल कर चुके संतोष कुमार प्रजापति का अनुभव थोड़ा अलग है। उन्होंने कहा, “बंगाल से आए कारीगर उनके लिए काम करते हैं, और उनकी प्रतिमाएं बिहार के विभिन्न जिलों में भेजी जाती हैं। हमारी सभी प्रतिमाएं शुद्ध गंगा मिट्टी से बनाई जाती हैं, और हर साल इसकी मांग बढ़ती जा रही है।”

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