October 13, 2025
National

कांशीराम: भीमराव अंबेडकर के सपनों के सच्चे सिपाही, दलित चेतना की आवाज

Kanshi Ram: A true soldier of Bhimrao Ambedkar’s dreams, the voice of Dalit consciousness

पंजाब के धूल भरे खेतों से निकलकर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर चमके कांशीराम का जीवन एक ऐसे सितारे की कहानी है, जो दलितों की आवाज बन गया।

15 मार्च 1934 को रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में एक साधारण रैदासिया सिख परिवार में जन्मे कांशीराम का जीवन जातिगत भेदभाव की काली दीवारों से टकराने की अनगिनत दास्तानों से भरा पड़ा है। उनके पिता एक किसान थे, जो कठोर परिश्रम से परिवार का पालन-पोषण करते थे। बचपन में ही कांशीराम ने देखा कि कैसे ऊंची जातियों का दबाव दलितों को कुचलता है, लेकिन घर में सिख धर्म की समानता की सीख ने उनके मन में विद्रोह की चिंगारी जलाई।

स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद 1958 में वे पुणे में डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) में लैब असिस्टेंट के रूप में शामिल हुए। यहां सरकारी नौकरी की चकाचौंध के बीच भी जातिवाद की स्याही से सने कागजातों ने उनकी आंखों को खोल दिया। उनके जीवन में निर्णायक मोड़ तब आया, जब पुणे में नौकरी के दौरान उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस अनुभव ने उन्हें सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने को प्रेरित किया।

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की पुस्तक ‘एनीहिलिएशन ऑफ कास्ट’ से प्रभावित होकर उन्होंने दलित उत्थान का संकल्प लिया। शुरुआत में उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) का साथ दिया, लेकिन जल्द ही उससे अलग हो गए। 1971 में कांशीराम ने अखिल भारतीय एससी, एसटी-ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की, जो 1978 में बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉइज फेडरेशन) बन गया। इसका उद्देश्य समाज के दबे-कुचले वर्गों को शिक्षित और संगठित करना था।

उनकी किताब ‘चमचा युग’ ने जहां दलित नेतृत्व की कमजोरियों को उजागर किया, वहीं बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना के जरिए उन्होंने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को राजनीतिक ताकत दी।

उनकी पुस्तक ‘चमचा युग’ ने दलित नेताओं पर तीखा प्रहार किया। इसमें उन्होंने ‘चमचा’ शब्द का इस्तेमाल उन नेताओं के लिए किया, जो उनकी नजर में अन्य दलों के साथ समझौता कर दलित हितों की अनदेखी करते थे। कांशीराम का मानना था कि दलितों को अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनानी होगी।

साल 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी, जिसका मंत्र था- “वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा!” बसपा ने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एकजुट कर सत्ता की दहलीज तक पहुंचाया।

1984 में उन्होंने छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से पहला चुनाव लड़ा, हालांकि जीत नहीं मिली, लेकिन 1991 में उत्तर प्रदेश के इटावा से लोकसभा चुनाव जीतकर उन्होंने अपनी ताकत दिखाई। 1996 में पंजाब के होशियारपुर से दूसरी बार सांसद बने।

कांशीराम ने मायावती को राजनीति में लाकर उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाया। 2001 में खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने कभी स्वयं कोई पद नहीं लिया, बल्कि मायावती को आगे बढ़ाया। उनकी दूरदर्शिता ने बसपा को उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी बनाया।

‘मान्यवर’ और ‘साहेब’ जैसे नामों से पुकारे जाने वाले कांशीराम 20वीं सदी के अंत में भारतीय राजनीति में एक प्रेरक व्यक्तित्व बन गए। 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी दलित और बहुजन समाज के लिए प्रेरणा बनी हुई है।

भारतीय राजनीति में दलित सशक्तीकरण का परचम लहराने वाले कांशीराम एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने न केवल सामाजिक समानता की लड़ाई लड़ी, बल्कि अपनी संगठनात्मक कौशल से समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया।

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