September 17, 2025
Entertainment

लालगुड़ी जयरमन : विश्वभर में गूंजी भारतीय शास्त्रीय संगीत की धुन

Lalgudi Jayaraman: The melody of Indian classical music resonates across the world

भारत ने दुनिया को अनगिनत महान कलाकार दिए हैं, जिन्होंने अपने हुनर से न केवल देश को गौरवान्वित किया, बल्कि देश की सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने पेश किया है। ऐसे ही एक संगीतकार थे लालगुड़ी जयरमन, जिनका नाम आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत की बुलंदियों पर गूंजता है। उनकी वायलिन से निकली धुनें आत्मा तक को छू जाती थीं।

उनकी कला का एक अद्भुत प्रमाण तब मिला, जब 1979 में दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में उनकी एक प्रस्तुति को बगदाद की अंतरराष्ट्रीय संगीत परिषद ने दुनिया भर से भेजी गई 77 रिकॉर्डिंग्स में सबसे श्रेष्ठ माना। यह भारत के लिए गर्व का क्षण था और लालगुड़ी जयरमन के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि।

लालगुड़ी जयरमन का जन्म 17 सितंबर 1930 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था। उनका पूरा नाम लालगुड़ी गोपाल अय्यर जयरमन था। वे दक्षिण भारत के महान संगीतकार त्यागराज के वंशज थे, इसलिए उनके खून में संगीत था। उनके पिता, वी. आर. गोपाल अय्यर, खुद एक प्रतिष्ठित कर्नाटक संगीतज्ञ थे, जिन्होंने अपने बेटे को बचपन से ही संगीत की शिक्षा दी। महज 12 साल की उम्र में लालगुड़ी जयरमन ने मंच पर पहली बार वायलिन बजाया और संगीत की दुनिया में कदम रखा।

उन्होंने वायलिन की एक नई शैली को जन्म दिया, जिसे आज ‘लालगुड़ी बानी’ के नाम से जाना जाता है। उनकी इस शैली में राग, ताल और लय का ऐसा संतुलन देखने को मिलता है जो बेहद सहज, भावनात्मक और गहराई के लिए होता है। उनकी कला की प्रसिद्धि भारत तक ही सीमित नहीं रही। वे रूस, सिंगापुर, मलेशिया, फ्रांस, बेल्जियम, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन समेत कई देशों में संगीत समारोहों में भाग ले चुके थे, लेकिन उनके करियर का सबसे अनोखा मोड़ तब आया, जब 1979 में उनकी एक रिकॉर्डिंग को बगदाद में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगीत परिषद ने पूरे विश्व की 77 प्रविष्टियों में सबसे उत्कृष्ट घोषित किया। यह रिकॉर्डिंग दिल्ली के आकाशवाणी केंद्र में की गई थी। यह एक ऐसा सम्मान था, जिसने दिखाया कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की ताकत कितनी अद्भुत और व्यापक है।

इसके पहले भी वर्ष 1965 में स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग संगीत महोत्सव में जब उन्होंने वायलिन पर प्रस्तुति दी, तो विश्वप्रसिद्ध वायलिन वादक यहूदी मेनुहिन इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इतालवी वायलिन लालगुड़ी को उपहार में दे दी।

उन्होंने अपने जीवन में अनगिनत नृत्य रचनाएं तैयार कीं, जो आज भी नर्तकों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। वे तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और संस्कृत, चार भाषाओं में संगीत रचनाएं करते थे, जिससे उनका प्रभाव पूरे दक्षिण भारत में रहा। उन्हें 1972 में पद्मश्री, 1979 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1994 में मैरीलैंड की मानद नागरिकता, 2001 में पद्मभूषण और 2006 में फिल्म ‘श्रीनगरम्’ के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।

उनका निधन 22 अप्रैल 2013 को हुआ, लेकिन उनके द्वारा स्थापित संगीत की परंपरा आज भी जीवित है।

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