October 22, 2025
National

झांसी की रानी से पहले उठी थी कित्तूर की रानी चेन्नम्मा की तलवार, 1824 में अंग्रेजों को दी चुनौती

Queen Chennamma of Kittur had raised her sword before the Queen of Jhansi, challenging the British in 1824.

कर्नाटक के बेलगाम जिले में स्थित कित्तूर रियासत अपनी समृद्धि और शांति के लिए जानी जाती थी। इसी के केंद्र में एक अटूट संकल्प की महिला थीं रानी चेन्नम्मा।

जिस तरह झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 में उत्तर भारत में आजादी की अलख जगाई, ठीक उसी तरह कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ने 1824 में दक्षिण भारत में स्वतंत्रता के पहले शोले को प्रज्वलित किया था।

23 अक्टूबर 1778 में बेलगावी के काकती गांव में जन्मी चेन्नम्मा ने बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरंदाजी का गहन प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया था। नियति ने उन्हें कित्तूर के राजा मल्लसारजा के साथ विवाह के बंधन में बांधा और वह एक रानी बन गईं।

रानी चेन्नम्मा का असली पराक्रम उस समय उजागर हुआ जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की गिद्ध-दृष्टि कित्तूर की रियासत पर पड़ी। उस समय तक, अधिकांश भारतीय शासक अंग्रेजों के सामने या तो घुटने टेक चुके थे या उनके साथ असहज समझौते कर चुके थे, लेकिन रानी चेन्नम्मा ने सम्मान और स्वतंत्रता की राह चुनी।

चेन्नम्मा के जीवन में दुख का पहाड़ तब टूटा जब उनके पति, राजा मल्लसारजा और जल्द ही उनके इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गई। एक झटके में, कित्तूर का सिंहासन खाली हो गया और रियासत पर एक गहरा संकट मंडराने लगा। इस संकट का नाम था ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ यानी व्यपगत का सिद्धांत।

यह सिद्धांत लॉर्ड डलहौजी द्वारा औपचारिक रूप से लागू किए जाने से काफी पहले ही ब्रिटिश अधिकारियों की एक अनौपचारिक नीति थी। इसके तहत, यदि किसी रियासत के शासक का अपना कोई पुरुष उत्तराधिकारी नहीं होता, तो ब्रिटिश कंपनी उस राज्य को हड़प लेती थी।

रानी ने, हिंदू परंपरा के अनुसार, अपने रिश्तेदार शिवालिंगप्पा को गोद लिया और उन्हें उत्तराधिकारी घोषित किया। लेकिन इस मानवता और परंपरा की अंग्रेजों के लिए कोई कीमत नहीं थी। धारवाड़ के ब्रिटिश कलेक्टर जॉन ठाकरे ने इसे सिरे से खारिज कर दिया।

रानी चेन्नम्मा ने ठाकरे के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उनका जवाब सीधा और स्पष्ट था कि कित्तूर की स्वतंत्रता हमारे बच्चों की विरासत है और इसे सौंपने के बजाय हम युद्ध के मैदान में मरना पसंद करेंगे।

यह जवाब 1857 से 33 साल पहले, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध की घोषणा से भी पहले की गई एक ललकार थी। उस दौर में, जब ब्रिटिश शक्ति को अजेय माना जाता था, कित्तूर जैसी छोटी रियासत का यह विद्रोह एक चिंगारी से कम नहीं था।

ठाकरे ने जवाब में अपनी पूरी सैन्य ताकत कित्तूर पर झोंक दी। 20,000 ब्रिटिश सैनिकों और लगभग 4 लाख रुपए मूल्य के खजाने को जब्त करने की मंशा से वह आगे बढ़ा। कित्तूर के किले के चारों ओर घेरा डाल दिया गया। रानी चेन्नम्मा ने अपनी सेना को संगठित किया। उनके पास अनुभवी योद्धा थे और सबसे महत्वपूर्ण, उनके पास अपनी जन्मभूमि की रक्षा करने का अटूट जज्बा था।

23 अक्टूबर 1824 को वह ऐतिहासिक युद्ध छिड़ा। कित्तूर की सेना (जिसका नेतृत्व रानी चेन्नम्मा स्वयं कर रही थीं) ने असाधारण शौर्य का प्रदर्शन किया। ब्रिटिश सेना को इस अप्रत्याशित, भयंकर प्रतिरोध की उम्मीद नहीं थी।

युद्ध का सबसे निर्णायक क्षण तब आया जब रानी के प्रमुख सेनापतियों में से एक, बालनगौडा, ने ठाकरे को लक्ष्य बनाया। ठाकरे घोड़े से गिर पड़ा और कित्तूर के सैनिकों ने उसे मार गिराया। ब्रिटिश सेना में भगदड़ मच गई। ठाकरे की मृत्यु ने अंग्रेजों को गहरा आघात पहुंचाया। कित्तूर की सेना ने न केवल ब्रिटिश सेना को पराजित किया, बल्कि दो वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों (कैप्टन स्टीवेन्सन और कैप्टन ब्लैकवेल) को भी बंदी बना लिया। यह ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए एक शर्मनाक हार थी।

पहली जीत ने रानी चेन्नम्मा को अमर कर दिया, लेकिन यह शांति क्षणिक थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस अपमान का बदला लेने का संकल्प लिया। बंदी बनाए गए अधिकारियों को मुक्त कराने के बहाने, उन्होंने एक समझौता किया, जिसके तहत रानी ने अधिकारियों को छोड़ दिया। लेकिन अंग्रेजों ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी।

नवंबर 1824 में, कर्नल डीकन के नेतृत्व में एक विशाल सेना (जिसमें और भी अधिक तोपें और गोला-बारूद शामिल थे) ने कित्तूर को घेर लिया। अंग्रेजों ने रणनीति बदल दी थी।

रानी चेन्नम्मा और उनके सेनापति गुरुसिद्दप्पा और रायन्ना ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी। उन्होंने किले को बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन गद्दारों के कारण गोला-बारूद में नमक मिला दिया गया, जिससे हथियार काम करना बंद कर गए। संघर्ष के बाद भी धोखे के सामने कित्तूर की सेना नहीं टिक पाई।

रानी चेन्नम्मा को बैलहोंगल किले में कैद कर दिया गया, जहां स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण 21 फरवरी 1829 को उनकी मृत्यु हो गई। यह एक वीरांगना का दुखद अंत था, लेकिन उनके शौर्य की गाथा अमर है।

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