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ठुमरी की रानी : शोभा गुर्टू की गायकी और अभिव्यक्ति ने बनाई विश्वभर में अलग पहचान

Queen of Thumri: Shobha Gurtu's singing and expression have created a distinct identity across the world.

गायिका शोभा गुर्टू ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली को एक नया आयाम दिया। ठुमरी, जो अपनी नजाकत और भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए जानी जाती है, समय के साथ थोड़ी पिछड़ रही थी, लेकिन शोभा गुर्टू ने अपनी विलक्षण आवाज और प्रभावशाली अदाकारी के बल पर इसे पुनर्जीवित किया। उनके इस अभूतपूर्व योगदान के कारण, उन्हें ‘ठुमरी की रानी’ कहा जाने लगा, और वे इस भावप्रधान गायन शैली की महान और महत्वपूर्ण प्रस्तुतकर्ताओं में से एक मानी जाती हैं।

शोभा गुर्टू का जन्म 8 फरवरी 1925 को कर्नाटक के बेलगाम शहर में हुआ था। उनका असली नाम भानुमती शिरोडकर था। वे एक संगीत परिवार से आती थीं। छोटी उम्र से ही शोभा को संगीत से खासा लगाव था और उन्होंने अपनी मां मेनकाबाई शिरोडकर से ही शुरुआती प्रशिक्षण लेना शुरू किया।

शोभा गुर्टू की औपचारिक संगीत शिक्षा जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद भुर्जी खान और उस्ताद घामसन खान से हुई। ये दोनों ही उस घराने के महान कलाकार थे। खास बात यह थी कि जब उनके गुरु घामसन खान मुंबई में रहते थे, तो वे शोभा के घर पर ही ठहरे और उन्हें ठुमरी, दादरा और अन्य शास्त्रीय शैलियां सिखाने लगे। इस प्रकार शोभा ने न केवल गायकी में महारत हासिल की, बल्कि शास्त्रीय संगीत के रहस्यों को भी समझा।

शोभा गुर्टू ने ठुमरी के साथ-साथ दादरा, कजरी और होरी जैसी अन्य अर्ध-शास्त्रीय शैलियों में भी कमाल की पकड़ बनाई। उनकी गायकी की सबसे बड़ी खासियत थी उनका ‘अभिनय,’ यानी गायन के साथ उनके चेहरे का भाव। वह हर गीत के साथ उसकी कहानी को आंखों और चेहरे की भाषा में भी दर्शाती थीं। इसी के चलते उन्होंने ठुमरी शैली को नया रंग दिया और इसे एक नए मुकाम पर पहुंचाया। उनकी गायकी में न केवल संगीत की गहराई थी, बल्कि श्रोताओं के दिलों को छू लेने वाली संवेदनशीलता भी थी। इस वजह से संगीत प्रेमियों ने उन्हें ‘ठुमरी की रानी’ का खिताब दिया।

शोभा गुर्टू ने अपने करियर में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं। उन्होंने न केवल संगीत समारोहों में देश के विभिन्न हिस्सों में प्रस्तुति दी, बल्कि विदेशों में भी उनका प्रदर्शन हुआ, जिसमें न्यूयॉर्क के प्रसिद्ध कार्नेगी हॉल में कार्यक्रम शामिल था। वे पंडित बिरजू महाराज जैसे महान कलाकारों के साथ भी मंच साझा कर चुकी थीं। इसके अलावा उन्होंने हिंदी और मराठी फिल्मों में पार्श्वगायन किया। उनकी पहली पार्श्वगायन फिल्म कमाल अमरोही की ‘पाकीजा’ (1972) थी, जिसमें उन्होंने ‘बंधन बांधो’ गीत गाया। इसके बाद 1973 में ‘फागुन’ फिल्म का ‘मोरे सैंया बेदर्दी बन गए’ गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। 1978 में आई फिल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में उनके गाए ‘सईयां रूठ गए’ गीत के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामांकित भी किया गया।

उनकी संगीत यात्रा में कई सम्मान और पुरस्कार भी शामिल रहे। 1987 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला, जो भारतीय संगीत और नृत्य के क्षेत्र में एक उच्च सम्मान है। इसके बाद उन्हें महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, लता मंगेशकर पुरस्कार और शाहू महाराज पुरस्कार जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी प्राप्त हुए। उनकी संगीत प्रतिभा और कला के प्रति समर्पण को देखते हुए भारत सरकार ने 2002 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया, जो देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

27 सितंबर 2004 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनका संगीत और उनके गायन का अंदाज आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। उन्होंने ठुमरी जैसी भावपूर्ण शैली को बचाने और उसका विकास करने में अहम भूमिका निभाई।

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