उच्च न्यायालय ने लंबे समय से कार्यरत अस्थायी और संविदा कर्मचारियों को नियमित करने के मामले में पंजाब और हरियाणा की “छलांग लगाने की नीति” की कड़ी आलोचना की है।
न्यायमूर्ति हरप्रीत सिंह बरार ने कहा कि दोनों राज्य “संवैधानिक न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों के कार्यान्वयन को दरकिनार करने के लिए नीतियां बनाते हैं”, जिससे कर्मचारियों को “अनिश्चितता” में रखा जाता है।
न्यायमूर्ति बरार ने ज़ोर देकर कहा, “अक्सर ऐसा होता है कि नियमितीकरण का दावा न तो स्वीकार किया जाता है और न ही अस्वीकार किया जाता है और आवेदक को अनावश्यक रूप से अधर में लटकाए रखा जाता है। नियमित काम लेते हुए दशकों तक दैनिक वेतनभोगी या संविदा कर्मचारियों को अस्थायी रूप से काम पर रखने की विस्तारित तदर्थता न केवल असंवैधानिक है, बल्कि समानता और सम्मान को भी कमज़ोर करती है।”
न्यायमूर्ति बरार ने जोर देकर कहा, “राज्य और उसके संस्थान आदर्श नियोक्ता होने के नाते इस तरह के शोषण को जारी नहीं रख सकते और वित्तीय बाधाओं, स्वीकृत पद की अनुपलब्धता और योग्यता की कमी जैसे बहाने का उपयोग नहीं कर सकते… नियमित पदों पर काम करने वाले अपने समकक्षों के बराबर लंबे समय तक काम करने की उनकी बारहमासी प्रकृति के आधार पर अच्छी तरह से योग्य नियमितीकरण से इनकार करने के लिए।”
न्यायमूर्ति बरार ने यह टिप्पणी एक ऐसे कर्मचारी की याचिका स्वीकार करते हुए की, जिसने 28 वर्षों से अधिक समय तक लगातार सेवा की थी। न्यायालय ने कहा कि नीतिगत संदर्भ के अभाव में याचिकाकर्ता की सेवाओं को नियमित करने से इनकार नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने आगे कहा कि अस्थायी कर्मचारियों को “वित्तीय संसाधनों की कमी का खामियाजा भुगतने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जबकि राज्य को उनकी सेवाओं का लगातार लाभ उठाने में कोई हिचक नहीं है।”