N1Live National सर्वजाति-धर्म समभाव की अनूठी परंपराओं के बीच रांची में 333वें वर्ष निकलेगी स्वामी जगन्नाथ की रथयात्रा
National

सर्वजाति-धर्म समभाव की अनूठी परंपराओं के बीच रांची में 333वें वर्ष निकलेगी स्वामी जगन्नाथ की रथयात्रा

Swami Jagannath's Rath Yatra will be held in Ranchi for the 333rd year amid unique traditions of equality of all castes and religions.

रांची, 6 जुलाई । रांची में 7 जुलाई को स्वामी जगन्नाथ की ऐतिहासिक 333वीं रथ यात्रा निकलेगी। हर साल आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को रांची की जगन्नाथपुर पहाड़ी से निकाली जाने वाली रथयात्रा और यहां के मंदिर से जुड़ी परंपराएं अनूठी हैं। सर्व जाति-धर्म समभाव और सद्भाव इसकी विशेषता है।

भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के विग्रहों की पूजा-अर्चना के बाद उन्हें रथ पर विराजमान कर जब यात्रा निकलेगी तो लाखों लोग इसके साक्षी बनेंगे।

राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन और सीएम हेमंत सोरेन भी इस आयोजन में सहभागी बनेंगे। इस रथयात्रा के साथ यहां नौ दिनों तक चलने वाला मेला भी शुरू हो जाएगा।

रांची शहर के जगन्नाथपुर में रथयात्रा की यह परंपरा 1691 में नागवंशीय राजा ऐनीनाथ शाहदेव ने शुरू की थी। उड़ीसा के पुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ दर्शन से मुग्ध होकर लौटे राजा ने उसी मंदिर की तर्ज पर रांची में लगभग ढाई सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर मंदिर का निर्माण कराया था। वास्तुशिल्पीय बनावट पुरी के जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है।

मुख्य मंदिर से आधे किमी की दूरी पर मौसीबाड़ी का निर्माण किया गया है, जहां हर साल भगवान को रथ पर आरूढ़ कर नौ दिन के लिए पहुंचाया जाता है। इस मंदिर और यहां की रथयात्रा का सबसे अनूठा पक्ष है, इसकी व्यवस्था और आयोजन में सभी जाति धर्म के लोगों की भागीदारी होती है।

यात्रा के आयोजन में सक्रिय रूप से शामिल राजपरिवार के वंशजों में एक लाल प्रवीर नाथ शाहदेव बताते हैं कि मंदिर की स्थापना के साथ ही हर वर्ग के लोगों को इसकी व्यवस्था से जोड़ा गया। सामाजिक समरसता और सर्वधर्म समभाव की एक ऐसी परंपरा शुरू की गयी, जिसमें उन्होंने हर वर्ग के लोगों को कोई न कोई जिम्मेदारी दी। मंदिर के आस-पास कुल 895 एकड़ जमीन देकर सभी जाति-धर्म के लोगों को बसाया गया था। उरांव परिवार को मंदिर की घंटी देने की जिम्मेदारी मिली, तो तेल व भोग की सामग्री का इंतजाम भी उन्हें ही करने के लिए कहा गया।

बंधन उरांव और बिमल उरांव आज भी इस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं। मंदिर पर झंडा फहराने, पगड़ी देने और वार्षिक पूजा की व्यवस्था करने के लिए मुंडा परिवार को कहा गया। रजवार और अहीर जाति के लोगों को भगवान जगन्नाथ को मुख्य मंदिर से गर्भगृह तक ले जाने की जिम्मेवारी दी गयी। बढ़ई परिवार को रंग-रोगन की जिम्मेवारी सौंपी गयी। लोहरा परिवार को रथ की मरम्मत और कुम्हार परिवार को मिट्टी के बर्तन उपलब्ध कराने के लिए कहा गया।

मंदिर की पहरेदारी की बड़ी जिम्मेदारी मुस्लिम समुदाय को सौंपी गयी थी। सैकड़ों वर्षों तक उन्होंने इस परंपरा का निर्वाह किया। पिछले कुछ वर्षों से मंदिर की सुरक्षा का इंतजाम ट्रस्ट के जिम्मे है। कलिंग शैली पर इस विशाल मंदिर में प्रभु जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं। एक ओर जहां अन्य मंदिरों में मूर्तियां मिट्टी या पत्थर की बनी होती है, वहीं यहां भगवान की मूर्तियां काष्ठ (लकड़ी) से बनी हैं। इन विशाल प्रतिमाओं के आस-पास धातु से बनी बंशीधर की मूर्तियां भी हैं, जो मराठाओं से यहां के नागवंशी राजाओं ने विजय चिह्न के रूप में प्राप्त किये थे।

Exit mobile version