November 8, 2025
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वन्दे मातरम् के 150वीं वर्षगांठ पर जश्न में डूबा विदेश मंत्रालय, कार्यक्रम में शामिल हुए एस जयशंकर

The Ministry of External Affairs celebrated the 150th anniversary of Vande Mataram, with S. Jaishankar attending the event.

 

नई दिल्ली वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने की खुशी में देशभर में जश्न मनाया जा रहा है। इस मौके पर भारत के विदेश मंत्रालय में भी एमईए एस जयशंकर ने भी इसका जश्न मनाया। इसकी जानकारी उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर दी।

एक्स पर पोस्ट में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा, “विदेश मंत्रालय वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में राष्ट्र के साथ शामिल है। वंदे मातरम राष्ट्र के दृढ़ संकल्प, प्रतिबद्धता और आशा का प्रतीक है। आज, यह हमें एक साझा स्वप्न और सामूहिक नियति को साकार करने के लिए प्रेरित करता है। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, वंदे मातरम् के मूल में भारत है और यह सदैव हमारे लिए प्रेरणादायी रहेगा।”

बता दें, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार, 7 नवंबर को दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के 150 साल पूरा होने की खुशी में स्मरणोत्सव समारोह का उद्घाटन किया। इस मौके पर पीएम मोदी ने एक स्मारक डाक टिकट और सिक्का भी जारी किया। बता दें, यह स्मरणोत्सव का कार्यक्रम सालभर चलने वाला है।

इस मौके पर पीएम मोदी ने कहा, “वंदे मातरम, ये शब्द एक मंत्र है, एक ऊर्जा है, एक स्वप्न है और एक संकल्प है। वंदे मातरम्, ये शब्द मां भारती की साधना है, मां भारती की आराधना है। वंदे मातरम्, ये शब्द हमें इतिहास में ले जाता है, ये हमारे वर्तमान को नए आत्मविश्वास से भर देता है और हमारे भविष्य को ये नया हौसला देता है कि ऐसा कोई संकल्प नहीं जिसकी सिद्धि न हो सके, ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे हम भारतवासी प्राप्त न सकें।”

उन्होंने आगे कहा कि गुलामी के उस कालखंड में वंदे मातरम भारत की आजादी के संकल्प का उद्घोष बन गया था कि मां भारती के हाथों से गुलामी की बेड़ियां टूटेंगी और उसकी संतानें स्वयं अपने भाग्य की विधाता बनेंगी। वंदे मातरम् आजादी के परवानों का तराना होने के साथ ही इस बात की भी प्रेरणा देता है कि हमें इस आजादी की रक्षा कैसे करनी है।

बता दें, वंदे मातरम् पहली बार साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में 7 नवंबर 1875 को प्रकाशित हुआ था। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इसे बाद में अपने उपन्यास आनंदमठ में भी शामिल किया। आनंदमठ 1882 में प्रकाशित हुआ था।

 

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