मुंबई, 13 उस उम्र में जब ज्यादातर बच्चे किंडरगार्टन में जाते थे और एबीसीडी सीख रहे थे, तब गुजरात के सरस गांव की एक आठ वर्षीय लड़की उषा मेहता 1928 में स्वतंत्रता आंदोलन के एक विरोध मार्च में शामिल हुईं थीं और ‘साइमन, गो बैक’ के नारे लगा रही थीं। वर्षों बाद, जब उषा 22 वर्ष की हो चुकी थीं, तो उन्होंने 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो’ के आह्रान के पांच दिन बाद, गोवालिया टैंक (अगस्त क्रांति) मैदान से अगले दिन शुरू होने वाले आंदोलन के साथ ‘खुफिया कांग्रेस रेडियो’ लॉन्च करके काफी सुर्खियां बटोरीं।
उषा मेहता को एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। उषा मेहता को अंग्रेजों के शासन के दौरान रेडियो के आरंभ और संचालन के लिए याद किया जाता है। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने खुफिया तरीके से रेडियो प्रसारण का काम शुरू किया था और खासी ख्याति बटोरी थी।
घबराई हुई पुलिस ने लोगों की सभा पर कार्रवाई करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के सभी नेताओं को पकड़ लिया और जेलों में डाल दिया, जिससे कनिष्ठ नेता और युवा ‘भारत छोड़ो’ अभियान को आगे बढ़ाने के लिए अकेले पड़ गए।
बमुश्किल पांच दिनों में, उषा और उनके साथियों जैसे विट्ठलभाई झावेरी, बाबूभाई ठक्कर, चंद्रकांत झावेरी और शिकागो रेडियो की मालिक नंका मोटवानी और अन्य ने ‘सीक्रेट कांग्रेस रेडियो’ के साथ भारत को आजाद कराने की अपने आवाज को बुलंद किया।
42.34 मीटर की फ्रीक्वेंसी पर यह रेडियो सेवा गुप्त रूप से शुरू की गई थी। इसे कहां से प्रसारित किया जा रहा था, उसके बारे में नहीं बताया गया था और इस गुप्त रेडियो ने 14 अगस्त, 1942 को अपना पहला प्रसारण किया और अंग्रेजी और हिंदी में दो बार या एक बार दैनिक रूप से प्रसारित किया गया।
उग्र ब्रिटिशों द्वारा पता लगाने से बचने के लिए दैनिक तौर पर स्थान बदलना भी आम हो चुका था। रेडियो प्रसारित देशभक्ति गीत, शीर्ष नेताओं के संदेश, नारे, रिकॉर्ड किए गए भाषण, ब्रिटिश अत्याचारों की बिना सेंसर वाली खबरें एवं प्रतिबंधित जानकारी, द्वितीय विश्व युद्ध से संबंधित कुछ लीक समाचार और अन्य महत्वपूर्ण संदेश रेडियो के जरिए लोगों तक पहुंचाने का काम शुरू हो चुका था।
इसने जनता और कांग्रेस नेताओं को अत्यधिक विद्युतीकृत (इलेक्ट्रिफाइड) किया। कांग्रेस रेडियो के साथ डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युतराव पटवर्धन और पुरुषोत्तम त्रिकमदास जैसे वरिष्ठ नेता भी जुड़ चुके थे। इस रेडियो ने डॉ. लोहिया, पटवर्धन और पुरुषोत्तम के अलावा अन्य कई आक्रामक और उग्र वक्ताओं को अपने भाषणों को प्रसारित करने के लिए आकर्षित किया। यहां तक कि कांग्रेस रेडियो पर महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं के पहले से रिकॉर्ड किए गए संदेश भी प्रसारित किए जाते थे। ब्रिटिश हुकूमत की नजरों से बचाने के लिए इस खुफिया रेडियो सेवा के स्टेशन करीब-करीब रोज बदले जाते थे।
रेडियो लगभग 3 महीने तक अत्यधिक लोकप्रिय रहा, जब तक कि ‘गुप्त स्थान’ पर अंग्रेसी हुकूमत की नजर नहीं पड़ी। तमाम कोशिशों के बावजूद खुफिया कांग्रेस रेडियो सेवा को ज्यादा दिनों तक नहीं चलाया जा सका और तीन माह के प्रसारण के बाद नवंबर, 1942 को ब्रिटिश हुकूमत ने उषा मेहता और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया। खुफिया रेडियो चलाने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। बाद में यरवदा सेंट्रल जेल, पुणे से 1946 में उन्हें रिहा किया गया।
बाद में कई नेताओं ने स्वीकार किया, विश्व युद्ध-2 (1939-1945) के दौरान एक रेडियो स्टेशन चलाने का उनका साहस एक सराहनीय उपलब्धि थी जिसने जनता को एकजुट करने में मदद की और स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने में काफी मदद की।
25 मार्च, 1920 को जन्मी उषा महज पांच साल की थीं, जब उन्होंने अहमदाबाद में साबरमती आश्रम (1917 में स्थापित) में गांधीजी के ‘दर्शन’ किए, और बाद में सूरत के पास उनके कार्यकर्ताओं के शिविरों में भाग लिया। उन्होंने खादी भी काता और विरोध प्रदर्शनों में भी भाग लिया। पूर्ण शराबबंदी के लिए प्रदर्शन और अभियान चलाने में भी उनकी भूमिका रही।
हालांकि ब्रिटिश शासन के दौरान जज रहे उनके पिता हरिप्रसाद मेहता ने स्वतंत्रता की लड़ाई का हिस्सा बनने से उन्हें रोकने की भरपूर कोशिश भी की थी, लेकिन उषा पर आजादी का जुनून था और वह नहीं मानीं। 1930 में पिता के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद यह बाधा भी दूर हो गई। पिता के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद उनका पूरा परिवार मुंबई (तब बंबई) आ गया। इसके बाद तो उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया था, जिसमें गांधीजी की ऐतिहासिक नमक यात्रा में भी उनका योगदान रहा।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा खेड़ा, भरूच और फिर 1935 में गिरगाम में चंदारामजी हाई स्कूल, बंबई में हुई। उन्होंने बंबई के ही विल्सन कॉलेज (अब, 190 वर्ष पुराना) से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की। उन्होंने 1939 में फर्स्ट क्लास के साथ दर्शनशास्त्र में डिग्री प्राप्त की।
आजादी के बाद, 27 वर्षीय उषा ने फिर से पढ़ाई की ओर रुख किया और वह गांधीजी से गहराई से प्रभावित होकर, वह एक ब्रह्मचारी बन गईं और उन्होंने एक मितव्ययी गांधीवादी जीवन शैली को अपनाया, आराम और विलासिता को त्याग दिया, अंत तक केवल खादी साड़ी पहनी। उन्होंने अपने जीवन का बाकी बच्चा हिस्सा गांधीवादी दर्शन में ही बिता दिया।
वापस विश्वविद्यालय परिवेश में जाते हुए उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और लोकप्रिय रूप से डॉ. उषा मेहता के तौर पर जानी जाने लगीं। वह मुंबई के अकादमिक और राजनीतिक हलकों में एक जानी-पहचानी शख्सियत बन चुकी थीं, जिन्होंने एक छात्र, शिक्षक, प्रोफेसर और फिर बॉम्बे विश्वविद्यालय में नागरिक शास्त्र और राजनीति विभाग के प्रमुख के रूप में अपने लंबे करियर में खूब प्रशंसा बटोरीं। वह 60 वर्ष की आयु में 1980 में सेवानिवृत्त हो गईं।
विडंबना यह है कि स्वतंत्रता संग्राम में एक यादगार भूमिका निभाने के बावजूद, 15 अगस्त, 1947 की उस ऐतिहासिक तारीख को, जब भारत आधी रात को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त हो गया, उषा पिछले दिनों पुणे में अपनी जेल की अवधि की कठोरता के कारण बीमार होकर बिस्तर पर पड़ी थीं। जेल के दौरान बिताए गए कठिन दिनों ने उसके कमजोर स्वास्थ्य पर भारी असर डाला।
सेवानिवृत्त होने के बाद, वह अंग्रेजी और गुजराती में लेखों, निबंधों, किताबों और भाषणों के माध्यम से गांधीवादी विचारधारा का प्रसार करते हुए एक व्यस्त सामाजिक जीवन में उतर गईं।
वह गांधी स्मारक निधि (जीएसएन) की अध्यक्ष चुनी गईं। वह गांधी शांति प्रतिष्ठान और भारतीय विद्या भवन के साथ भी सक्रिय रहीं।
हालांकि डॉ. मेहता को पद्म श्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया था और 1997 में स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौरान कई कार्यक्रम उन्हें समर्पित किए गए थे, लेकिन देश में होने वाली घटनाओं से उनके मन में उथल-पुथल रही।
डॉ. मेहता ने कभी-कभी यह कहते हुए अपनी पीड़ा व्यक्त की, ‘यह वो स्वतंत्रता नहीं है’ जिसके लिए उन्होंने और अन्य लोगों ने लड़ाई लड़ी थी। दरअसल वह जनता की सेवा के बजाय सत्ता का पीछा करने वाले लोगों से आहत होकर ऐसा बोल देती थीं। हालांकि उन्होंने यह प्रशंसा भी खुलकर की थी कि देश ने सभी मोचरें पर काफी प्रगति की है।
अगस्त 2000 की शुरुआत में उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा था और 11 अगस्त की रात को उन्होंने अंतिम सांस ली।
डॉ. मेहता के परिवार में उनके तीन भतीजे हैं – प्रसिद्ध बॉलीवुड फिल्म निर्माता केतन मेहता और दो प्रसिद्ध चिकित्सक, गुरुग्राम में डॉ. यतिन मेहता और मुंबई में डॉ. नीरद मेहता।
काईद नजमी –आईएएनएस
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