नई दिल्ली, पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को आज ही के दिन 14 अगस्त 1990 को पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से नवाजा गया था। वह पहले भारतीय थे जिन्हें पाकिस्तान ने यह पुरस्कार दिया।
पाकिस्तान द्वारा मोरारजी देसाई को ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ देने पर भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंधों में क्या प्रभाव पड़े, यह स्पष्ट नहीं है। पाकिस्तान की इस कदम के पीछे क्या मंशा थी, इस पर भी बहुत कम लोग स्पष्ट राय रखते हैं।
क्या इस कदम के पीछे का मकसद भारत-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय संबंधों को सुधारना था? या भारत सरकार द्वारा इससे दो साल पहले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सीमांत गांधी कहे जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिए जाने के बाद इसे सद्भावना के तहत पाकिस्तान द्वारा भी किसी भारतीय नेता को सम्मानित करना था?
इसके अलावा, इस पूरे वाकये पर सबसे चर्चित थ्योरी यह है कि आपातकाल के बाद 1970 के अंत के दशक में जब वह भारत के प्रधानमंत्री थे तो पाकिस्तान के परमाणु ठिकानों पर बमबारी करने के लिए इजरायली विमानों को जरूरी ईंधन भरने के लिए भारत की धरती का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी थी। साथ ही पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जिया-उल हक को बातों ही बातों में यह बता दिया था कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में सब पता है। जिससे पाकिस्तान के शहर कहुंटा में जहां परमाणु संयंत्र लगे थे, में सारे भारतीय रॉ एजेंट्स को पाकिस्तानी सेना ने मौत के घाट उतार दिया।
डिफेंस एक्सपर्ट आलोक बंसल इन संभावनाओं से साफ इनकार कर देते हैं कि पाकिस्तान के कहुंटा शहर के परमाणु संयंत्र के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पाकिस्तानी जनरल को कुछ बताया था या इस एहसान के चलते उनको ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ दिया गया था।
वह खान अब्दुल गफ्फार खान को 1988 में भारत सरकार द्वारा भारत रत्न दिए जाने की घटना को इसके केंद्र में रखते हैं। वह कहते हैं, “पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को निशान-ए-पाकिस्तान देने के पीछे सिर्फ एक कारण था, वह यह था कि भारत ने खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत रत्न दिया था, जो कि पाकिस्तान के नागरिक थे। वह स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी थे, इसलिए भारत सरकार का उनको भारत रत्न देना एक उचित तरीका था। खान अब्दुल गफ्फार खान का रुख हमेशा भारत के पक्ष में रहा, इसलिए पाकिस्तान की सरकार को यह पसंद नहीं आया। पाकिस्तान की सरकार ने इसे काउंटर करने के लिए मोरारजी देसाई को चुना।”
राजनीतिक राजनीतिक विश्लेषक अरविंद जयतिलक इस बात से सहमत नहीं हैं कि जो खान अब्दुल गफ्फार खान पाकिस्तान में रहकर भारत का पक्ष लेते थे और बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना के रवैये के खिलाफ थे, उनके लिए पाकिस्तान ऐसा कुछ कर सकता है। वह कहते हैं, “खान अब्दुल गफ्फार खान किसी भी कीमत पर पाकिस्तान बनने के खिलाफ थे। वह नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान बने। दूसरी चीज यह है कि पाकिस्तान के बनने के बाद बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सरकार का जो रवैया था, उस पर भी गफ्फार खान साहब बहुत विरोध करते थे। उनको पाकिस्तान उतनी अहमियत नहीं देता था। जो लोग खान अब्दुल गफ्फार खान को मुस्लिम लीग का नेता स्वीकार करने के एकदम खिलाफ थे, साथ ही आजादी की लड़ाई में खान अब्दुल गफ्फार खान का जो कद था, उस कद के बराबर मोरारजी देसाई कहीं नहीं ठहरते थे, वह बस एक प्रधानमंत्री के तौर पर माने जाते हैं। इसलिए यह कह देना कि पाकिस्तान ने खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत रत्न देने की वजह से मोरारजी देसाई को निशान-ए-पाकिस्तान दिया, यह तर्क गलत है। जो पाकिस्तान शहीद-ए-आजम भगत सिंह को भुला देता है, जो पाकिस्तान चंद्रशेखर आजाद को भुला देता है, अश्फाकुल्लाह खां को भुला सकता है, मुझे नहीं लगता कि मोरारजी देसाई साहब उसके लिए बहुत उचित व्यक्ति होंगे।”
कहुंटा में पाकिस्तान के परमाणु संयंत्र की जानकारी भारत को होने और इस पर कार्यवाही न करने की बात को आलोक बंसल भले ही कपोल कल्पित मानते हों, पर अरविंद जयतिलक इस धारणा को मजबूती से बल देते हैं। वह कहते हैं कि भारत की खुफिया एजेंसी रॉ की पाकिस्तान के कहुंटा में स्थित परमाणु केंद्रों पर गहरी नजर थी। पाकिस्तान में क्या चल रहा है, एक फोन कॉल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जनरल जियाउल हक से यह कह दिया था कि आपके परमाणु कार्यक्रम को लेकर हमारे पास सारी जानकारी है। इस बातचीत के बाद जनरल जिया के कान खड़े हो गए और उन्होंने अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई को सक्रिय कर दिया। इसके बाद भारत के जितने भी एजेंट वहां सक्रिय थे, उन्हें पकड़ कर उनकी हत्या करवा दी गई। देखिए इस पर एक सवाल लोग उठाते हैं कि मोरारजी देसाई ने जनरल जिया को यह जानकारी जानबूझ कर दी या बड़बोलेपन में उनके मुंह से यह निकल गया। जैसे मियां परवेज मुशर्रफ अपने कार्यकाल में कई बार कहते थे कि दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में है। हालांकि बाद में ऑफिसियली वो उस बात से ही पलट गए। मोरारजी देसाई को निशान-ए-पाकिस्तान देने के पीछे ये सॉफ्ट कार्नर भी था। उनको ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ देने के पीछे सबसे बड़ी वजह यही है। इस पूरे विषय पर रॉ से जुड़े लोगों ने बाद में कई किताबें भी लिखी, लेकिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री की छवि को खराब न होने देने की वजह से इन किताबों को प्रतिबंधित कर दिया गया। हालांकि कई विदेशी अखबारों और मीडिया हाउसेज ने बाद में इन किताबों से कई बार कोट किया।
अरविंद जयतिलक इस बात से भी सहमत नहीं हैं कि मोरारजी देसाई का कद महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान के बराबर था, इसलिए पाकिस्तान ने भी खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत रत्न देने के बदले मोरारजी देसाई को ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ दिया होगा। वह कहते हैं, “भारतीय राजनीति के संदर्भ में मैं मोरारजी देसाई को उस तरीके से नहीं देख पाता हूं। जब 1975 में सवाल उठा कि किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए तो जगजीवन बाबू का नाम सबसे आगे चल रहा था। लेकिन मोरारजी देसाई भारत सरकार में वित्त मंत्री रहे थे और कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे। साथ ही वह इंदिरा खेमे के विरोधी थे। इसलिए जनता पार्टी ने उनको चुना, नहीं तो वह प्रधानमंत्री भी नहीं होते।”
मोरारजी देसाई भले ही शुरूआत में कांग्रेसी नेता रहे हों, लेकिन इंदिरा गांधी की नीतियों का खुलकर विरोध करने और आपातकाल के बाद की सरकार के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी दूरियां कांग्रेस पार्टी से बढ़ गईं। कांग्रेसी खेमे के लिए वह कहीं न कहीं असहज करने वाले व्यक्ति जरूर रहे। अरविंद जयतिलक मोरारजी देसाई को सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने के पीछे पाकिस्तान की एक चाल को भी चिन्हित करते हैं। वह कहते हैं, “इसमें एक चीज और है कि मोरारजी देसाई पर इस मामले में भारत में सवाल उठ चुके थे, इसलिए भारत में विद्रोह की स्थिति पैदा हो, इसलिए इस कदम को पाकिस्तान की एक चाल के रूप में भी देखा जा सकता है। देखिए, भारत के किसी प्रधानमंत्री को पाकिस्तान द्वारा अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान देना अपने आप में बहुत आश्चर्यजनक बात है।”
भारत और पाकिस्तान के संबंधों में इसके बाद क्या प्रभाव आया, इस पर विशेषज्ञों की राय एक सी है। आलोक बंसल भारत पाकिस्तान के खराब रिश्तों के लिए पाकिस्तान की टू नेशन थ्योरी को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि इसके बाद दोनों देशों के रिश्तों में कोई प्रभाव आया। जहां तक भारत पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंधों की बात है तो भारत और पाकिस्तान के बीच एक वैचारिक मतभेद है। इसलिए दोनों देशों के बीच हमेशा शांति रहना बहुत ही मुश्किल है। क्योंकि पाकिस्तान टू नेशन थ्योरी के तहत भारत को एक गंभीर खतरे के रूप में लेता है, और भारत के साथ भी ऐसा ही है। अगर सुधारों के लिए देखना है तो पाकिस्तान को टू नेशन थ्योरी को छोड़ना पड़ेगा। पीपुल टु पीपुल कांटेक्ट बढ़ाना पड़ेगा, तभी ऐसा संभव होगा। लेकिन पाकिस्तान के अंदर जैसे राजनीतिक माहौल रहे हैं, उससे यह संभव नहीं लगता।”
अरविंद जयतिलक भी इस बात से इनकार करते हैं कि मोरारजी देसाई को भारत रत्न देने के बाद दोनों देशों के कूटनीतिक संबंधों में कोई प्रभाव आया। वह कहते हैं, “इसको देने के बाद भी भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा।”