मंडी, 20 जुलाई भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मंडी के शोधकर्ताओं ने भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए सबसे टिकाऊ और लाभदायक विकल्प की पहचान करने के लिए पांच सौर सेल प्रौद्योगिकियों का व्यापक जीवन चक्र मूल्यांकन (एलसीए) किया है। यह शोध भारत के लिए अनुकूल कुशल और पर्यावरण के अनुकूल सौर ऊर्जा प्रणालियों की आवश्यकता को संबोधित करता है।
आईआईटी-मंडी के प्रवक्ता ने बताया कि यह अध्ययन स्कूल ऑफ मैकेनिकल एंड मैटेरियल्स इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अतुल धर और डॉ. सत्वशील रमेश पोवार तथा डॉ. श्वेता सिंह द्वारा सह-लिखित है, जिसे जर्नल ऑफ एनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट में प्रकाशित किया गया है।
यह अध्ययन भारत में सौर प्रौद्योगिकियों के पर्यावरणीय प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए निवेशकों और नीति निर्माताओं के लिए अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
प्रवक्ता ने कहा, “2010 से 2020 के बीच भारत ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन जैसी पहलों के ज़रिए पेरिस और कोपेनहेगन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में प्रगति की है। हालांकि, कोविड-19 ने सौर आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया, जिससे 160 अरब रुपये की परियोजनाओं में देरी हुई। सीओपी-26 के बाद भारत का ध्यान आपूर्ति श्रृंखला की विश्वसनीयता, ऊर्जा सुरक्षा और डीकार्बोनाइजेशन को बढ़ाने के लिए हरित सौर विनिर्माण पर चला गया, जो संयुक्त राष्ट्र के स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों के साथ संरेखित है।”
उन्होंने कहा, “भारत में प्रभावी सौर ऊर्जा प्रणाली स्थापित करने के लिए विभिन्न सौर प्रौद्योगिकियों के लाभ और हानि को समझना महत्वपूर्ण है। जबकि विश्व स्तर पर कई अध्ययन किए गए हैं, अधिकांश ने ग्लोबल वार्मिंग पोटेंशियल (जीडब्ल्यूपी) और एनर्जी पेबैक टाइम (ईपीबीटी) जैसी प्रभाव श्रेणियों का मूल्यांकन किया है। अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव श्रेणियां, जैसे कि मानव विषाक्तता और ओजोन क्षरण, अक्सर अनदेखा कर दी जाती हैं, और बहुत से अध्ययनों ने भारतीय परिस्थितियों में इन प्रौद्योगिकियों का मूल्यांकन नहीं किया है।”
डॉ. धर ने कहा, “हमारा अध्ययन भारतीय बाजार में प्रमुख सौर पीवी प्रौद्योगिकियों का विस्तृत पर्यावरणीय विश्लेषण प्रदान करता है। हालाँकि सौर पीवी प्रणालियाँ अपने परिचालन चरण के दौरान जीवाश्म ईंधन की तुलना में पर्यावरण के लिए अधिक अनुकूल होती हैं, लेकिन निर्माण और उपयोग के चरणों के दौरान इनका पर्यावरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।”
शोधकर्ताओं ने भारतीय विनिर्माण स्थितियों का उपयोग करते हुए पांच सौर ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन किया – मोनो-सिलिकॉन, पॉलीसिलिकॉन, कॉपर इंडियम गैलियम सेलेनाइड (सीआईजीएस), कैडमियम टेल्यूराइड (सीडीटीई), पैसिवेटेड एमिटर और रियर कॉन्टैक्ट (पीईआरसी)।
अनुसंधान दल ने जीवन चक्र मूल्यांकन उपकरण का उपयोग करते हुए क्रैडल-टू-गेट विश्लेषण किया, जिसमें 18 पर्यावरणीय प्रभाव श्रेणियां शामिल थीं।
इन श्रेणियों में कच्चे माल के निष्कर्षण से लेकर सौर पैनल निर्माण तक ग्लोबल वार्मिंग, समताप मंडल में ओजोन परत का क्षरण, मानव कैंसरजन्य और गैर-कैंसरजन्य विषाक्तता, तथा सूक्ष्म कण पदार्थ निर्माण जैसे आवश्यक पहलुओं को शामिल किया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि अध्ययन की गई पाँच तकनीकों में सेसीडीटीई तकनीक ने पर्यावरण पर सबसे कम प्रभाव डाला। इसमें कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन, ओजोन क्षरण क्षमता, मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव और कण वायु प्रदूषण सबसे कम था। इसके बाद सीआईजीएस पी.वी सेल का स्थान रहा।
इस शोध के निहितार्थों के बारे में बात करते हुए, डॉ. पोवार ने कहा, “सौर मॉड्यूल प्रौद्योगिकियों का जीवन चक्र मूल्यांकन सबसे टिकाऊ प्रौद्योगिकी की पहचान करने में मदद कर सकता है जो आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लाभों को संतुलित करता है। हमारे निष्कर्ष नीति निर्माताओं को सबसे टिकाऊ प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने, कम कार्बन अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और सौर ऊर्जा उत्पादन के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए मार्गदर्शन कर सकते हैं।”
शोधकर्ताओं ने माना कि उनके अध्ययन में सौर प्रौद्योगिकी जीवन चक्र के केवल एक हिस्से की जांच की गई है, जिसमें पुनर्चक्रण और जीवन के अंतिम चरण शामिल नहीं हैं। वे भविष्य के शोध में इन चरणों की जांच करने की योजना बना रहे हैं।
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