जब देश आजादी के लिए लड़ रहा था और हर जगह पुरुषों की भीड़ थी, तब एक ऐसी महिला थीं, जो उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती थीं और कई बार उनसे आगे भी निकल जाती थीं। उनके पास तलवार नहीं थी, लेकिन उनके विचारों की धार से अंग्रेजी हुकूमत भयभीत थी। उनका चेहरा क्रांति का प्रतीक बन गया और उनका साहस नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा बना।
एक ऐसी नारी, जिसने परंपराओं को चुनौती दी, समाज के बंधनों को तोड़ा और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में तिरंगा फहराकर यह साबित कर दिया कि स्वतंत्रता की लड़ाई सिर्फ पुरुषों की नहीं थी। आज, उनकी जयंती पर, हम नमन करते हैं उस स्वतंत्रता संग्राम की ग्रैंड ओल्ड लेडी को, जिनका जीवन हर भारतीय के लिए साहस, संकल्प और सेवा का एक जीता-जागता सबूत है।
16 जुलाई 1909 को हरियाणा के कालका शहर में जन्मी, ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखने वालीं अरुणा गांगुली, आज भारतीय इतिहास के उन नायकों में गिनी जाती हैं जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, बल्कि उसे एक नई दिशा भी दी। आज उनकी जयंती पर जब हम उनके जीवन के बारे में समझने की कोशिश करते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे साहस, विद्रोह, नेतृत्व और करुणा, इन तमाम गुणों ने एक ही व्यक्ति में आकार लिया था।
अरुणा की प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में हुई। वहीं उनके पिता का होटल था। वे पढ़ाई में तेज थीं और सोच-समझने में गहरी। अपने स्कूल के दिनों से ही उनमें प्रश्न करने की आदत थी। यही कारण रहा कि उन्होंने न केवल सामाजिक बंदिशों को तोड़ा, बल्कि बाद में धर्म और उम्र की सीमाओं को भी चुनौती दी, जब उन्होंने खुद से 21 साल बड़े मुस्लिम नेता आसफ अली से विवाह किया। घर की चारदीवारी से लेकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हर मोर्चे पर अरुणा ने क्रांति की। उनका पूरा जीवन ही एक क्रांति था।
1930, 1932 और 1941 के सत्याग्रह आंदोलनों में उन्हें जेल जाना पड़ा। कहा जाता है कि जेल में रहने के दौरान भी वह ‘भगत सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगाती थीं। ऐतिहासिक तौर पर उनका सबसे उल्लेखनीय योगदान 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में रहा, जब महात्मा गांधी समेत कई अन्य नेताओं को गिरफ्तार किया गया। ऐसे समय में जब पूरा आंदोलन नेतृत्व विहीन हो चला था, अरुणा आसफ अली ही थीं, जिन्होंने गोवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराकर स्वतंत्रता की मशाल जलाए रखी।
इसी कारण वे ‘1942 की नायिका’ और ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी ऑफ फ्रीडम मूवमेंट’ के नाम से विख्यात हुईं। उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी हुआ, लेकिन चार वर्षों तक भूमिगत रहकर उन्होंने ‘इंकलाब’ पत्रिका के जरिए अपने आंदोलन को जीवित रखा। संपत्ति जब्त हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया।
आधुनिक परिदृश्य में अरुणा जी का जीवन विचार और आदर्श की मिसाल है। साल 1947 में वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बनीं। इसके बाद, 1948 में वह कांग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुईं और फिर मजदूरों के आंदोलनों से जुड़ीं। बाद में उनकी पार्टी का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विलय हुआ और वे उसकी केंद्रीय समिति सदस्य और एआईटीयूसी की उपाध्यक्ष बनीं। साल 1958 में वे दिल्ली की प्रथम महापौर चुनी गईं और नगर विकास का नया मानक स्थापित किया।
राजनीति से इतर वे सामाजिक संस्थाओं से भी सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। ‘इंडो-सोवियत कल्चरल सोसाइटी’, ‘ऑल इंडिया पीस काउंसिल’, ‘नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमन’ जैसी संस्थाओं में उन्होंने नारी सशक्तिकरण, शांति और समानता के लिए कार्य किया। वे दिल्ली से प्रकाशित वामपंथी अखबार ‘पैट्रियट’ की संस्थापक संपादक रहीं।
अपने असाधारण नेतृत्व और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त किए। 1964 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा गया। 1997 में, मरणोपरांत उन्हें भारत का सर्वोच्च सम्मान, भारत रत्न प्रदान किया गया। इसके अलावा, 1991 में जवाहरलाल नेहरू ज्ञान पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अरुणा आसफ अली सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी नहीं थीं। वे एक शिक्षिका, पत्रकार, राजनीतिज्ञ, महापौर, संपादक और संगठक भी थीं। लेकिन, इन सब से हटकर वह विचार की एक मशाल थीं। आज जब महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, तब अरुणा आसफ अली का जीवन यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता केवल बाहरी बंधनों से आजादी पर नहीं, आंतरिक साहस और आत्मसम्मान से भी मिलती है।
29 जुलाई 1996 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन, उनका संघर्ष, साहस और उनका विचार आज भी जीवित है।
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