इतिहास के पन्नों पर 1857 की क्रांति को भले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दर्ज किया गया हो, लेकिन सच यह है कि झारखंड (तत्कालीन छोटानागपुर) के आदिवासी योद्धाओं ने उससे काफी पहले अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। इन्हीं योद्धाओं में एक थे तेलंगा खड़िया, जिन्हें उनकी 219वीं जयंती पर रविवार को झारखंड में शिद्दत के साथ याद किया गया।
वर्तमान समय में झारखंड के गुमला जिले के सिसई थाना अंतर्गत मुरगू में 9 फरवरी 1806 को जन्मे तेलंगा खड़िया ने 1857 की क्रांति के लगभग एक दशक पहले अंग्रेजी हुकूमत के शोषण-अत्याचार के खिलाफ झारखंड (तत्कालीन छोटानागपुर) के गांव-गांव में पंचायतें लगाकर विद्रोह की आंच सुलगा दी थी। हजारों लोगों ने इन पंचायतों से जुड़कर हथियारबंद दस्ते बना लिए थे।
इससे घबराई अंग्रेजी सरकार ने तेलंगा खड़िया को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था, लेकिन इसके बाद भी उनकी मुहिम नहीं रुकी थी। बाद में अंग्रेजी हुकूमत के पिट्ठू एक जमींदार ने झाड़ी की ओट में छिपकर गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “अंग्रेज शोषकों के खिलाफ लड़ने वाले झारखंड की क्रांतिकारी भूमि के वीर सपूत अमर वीर शहीद तेलंगा खड़िया की जयंती पर शत-शत नमन।”
झारखंड प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी उन्हें याद करते हुए लिखा, “अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध डटकर सामना करने वाले महान क्रांतिकारी, झारखंड के वीर सपूत तेलंगा खड़िया की जयंती पर उन्हें सादर नमन!”
रांची स्थित रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान की ओर से शहीद तेलंगा खड़िया के जीवन और उनके संघर्ष पर कराए गए शोध के अनुसार, तेलंगा खड़िया का जन्म एक साधारण किसान के घर में हुआ था। उनके पिता का नाम हुईया खड़िया और माता का नाम पेतो खड़िया था। जनजातीय क्षेत्र में उनके जीवन को लेकर कई गीत गाए जाते हैं, जिसमें उल्लेख है कि तेलंगा बचपन से ही बेहद साहसी थे। उन्होंने युद्ध कौशल में निपुणता प्राप्त की थी।
सन् 1840-50 के बीच अंग्रेजी हुकूमत और उनके समर्थक जमींदारों के खिलाफ उन्होंने गांव-गांव में पंचायत लगाना शुरू किया। इसे जूरी पंचायत कहा जाता था। इन पंचायतों में वह अपने समर्थकों को सुबह-शाम गदका, तलवार एवं तीर चलाने की कला सीखाते थे। सिसई स्थित मैदान प्रशिक्षण का मुख्य केंद्र बन गया था।
जनजातीय गीतों में जिक्र है कि तेलंगा खड़िया अंग्रेजों की राइफल और बंदूक का मुकाबला तलवार से कर लेते थे, मानों उन्हें ईश्वरीय वरदान था। उन्हें अंग्रेजी फौज ने गिरफ्तार कर कोलकाता के जेल में करीब 20 साल तक बंद रखा।
जेल से छूटने के बाद वह गांव लौटे और एक बार फिर अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी थी। वह 23 अप्रैल 1880 को वह अपने अनुयायियों को हथियारों का प्रशिक्षण देने के लिए सिसई मैदान पहुंचे थे। प्रशिक्षण शुरू करने के पहले वह प्रार्थना कर रहे थे, तभी अंग्रेजी हुकूमत के एक वफादार जमींदार ने झाड़ी में छिपकर उन पर गोली चलाई, जिससे वह वीरगति को प्राप्त हुए थे।
तेलंगा खड़िया की याद में गुमला से तीन किमी दूर चंदाली में उनका समाधि स्थल बनाया गया है। वहीं, पैतृक गांव मुरगू में उनकी एक मात्र प्रतिमा स्थापित की गई है। तेलंगा के वंशज आज भी मुरगू से कुछ दूरी पर घाघरा गांव में रहते हैं। खड़िया जाति के लोग अपने आपको तेलंगा के वंशज मानते हैं और उन्हें ईश्वर की तरह पूजते हैं।
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