January 8, 2025
National

उज्जैन : श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर शैलेषानंद गिरी महाराज ने महाकुंभ को लेकर दी खास जानकारी

Ujjain: Mahamandaleshwar Shaileshanand Giri Maharaj of Shri Panch Dashnam Juna Akhara gave special information about Mahakumbh.

उज्जैन, 3 दिसंबर । महाकुंभ सनातन धर्म में आस्था की चरम अभिव्यक्ति है। प्रयागराज में महाकुंभ 2025 का आयोजन अगले साल की शुरुआती महीने 13 जनवरी से 26 फरवरी तक होगा। महाकुंभ की तैयारियां को लेकर अलग-अलग अखाड़ों के द्वारा भूमि पूजन और ध्वजा स्थापित करने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। महाकुंभ में अखाड़ों की खास भागीदारी होती है और हर अखाड़े की अपनी परंपरा होती है। ऐसे ही 13 अखाड़ों में उज्जैन का श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा है, जिसके बारे में अखाड़े के महामंडलेश्वर शैलेषानंद गिरी महाराज ने महाकुंभ को लेकर महत्वपूर्ण जानकारी दी है।

महामंडलेश्वर शैलेषानंद गिरी ने परिचय देते हुए कहा, “श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा मेरे अखाड़े का नाम है। 13 अखाड़ों में प्राचीनतम इसका परिचय है। आदि गुरु शंकराचार्य ने इसका गठन किया था। उस समय उनकी एक मंशा थी कि संपूर्ण भारत को वह एक स्वास्तिक की तरह संग्रहित करें, तो उन्होंने 13 अखाड़े का गठन किया जिसमें से एक श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा है।

अखाड़े के इतिहास के बारे में जानकारी रोचक है। उन्होंने आगे बताया कि इस इतिहास को जानने के लिए 1780 की संन्यासी क्रांति को समझना जरूरी है जो अखाड़े के इतिहास के बारे में बेहतर समझ देती है। उस समय देश में 500 से अधिक राजा थे जिनके अंदर एकता का अभाव होने के कारण हिंदू धर्म बहुत प्रताड़ित हुआ था। यह वह विकट स्थिति थी जब मुगलों का आक्रमण हुआ और बाद में अंग्रेजों का भी आना हुआ। मध्यकाल के इस अस्थिर समय में साधु संतों ने अपना समूह बनाया और समूह बनाकर युद्ध लड़ा जिसे हम गोरिल्ला युद्ध कहते हैं। उसके अंदर उन्होंने शस्त्र और शास्त्र दोनों का उपयोग करा और उसे क्रांति का नाम दिया गया। बंकिम चंद्र के उपन्यास आनंद मठ में इसका यथार्थ के साथ वर्णन है। संन्यासियों ने एकत्रित होकर भारत-माता की प्रतिमा बनाई और उनके समक्ष अभिवादन किया। वह उनकी पूजा करते और आक्रांताओं से युद्ध लड़ते थे।

उन्होंने आगे बताया कि जब एक समय पर प्रयागराज कुंभ मेला था तब वहां मुगल बादशाह जहांगीर आने वाला था। तब साधु संन्यासियों की इतनी दिशा नहीं थी कि वे उसके खिलाफ सीधा युद्ध लड़ पाएं। ऐसे में वैष्णव और शैव साधुओं ने मिलकर एक पिरामिड बनाया। यह एक छद्म युद्ध था जहां पिरामिड पर चढ़कर एक साधु योद्धा ने जहांगीर को जाकर कटारी भोंक दी थी। यह संन्यासी क्रांति का उच्चतम स्वरूप था। जब राजसी व्यवस्थाएं भी असहाय हो जाती हैं और भारत की अखंडता की रक्षा नहीं कर पा रही थी तो ऐसी स्थिति में साधु संतों ने एक सन्यासी सैनिक बनकर अपनी भूमिका निभाई और भारत की क्रांति को जन्म दिया जिसे हम आजादी की प्रथम क्रांति के रूप में जानते हैं।

महाकुंभ में सबसे ज़्यादा महत्व प्रयागराज का ही क्यों माना जाता है? इस पर महामंडलेश्वर शैलेषानंद गिरी ने कहा, प्रयागराज का कुंभ त्रिवेणी संगम के ऊपर होने वाला एक ऐसा कुंभ है, जहां से कुंभ की शुरुआत हुई थी। राजा हर्षवर्धन ने इसे आहूत किया था। इसलिए प्रयाग को बेहद महत्व दिया जाता है। प्रयाग में होने वाला संन्यास रजोगुणी संन्यास होता है। यानी राजसी व्यवस्था के रूप में एक राजा के रूप में, वहां पर एक संन्यासी का पटाभिषेक होता है या उसका संन्यास ग्रहण होता है। नासिक, हरिद्वार, प्रयागराज के कुंभ का अलग अलग महत्व है। हरिद्वार में सतगुण कुंभ होता है। नासिक कुंभ में तमोगुण को थोड़ा सा ज्यादा बढ़ावा दिया जाता है। उज्जैन में महादेव विराजते हैं, इसलिए इस स्थान का भी विशेष महत्व है।

इसके अलावा प्रयागराज का त्रिवेणी संगम स्नान सबसे बड़ा माना जाता है। कुंभ का स्नान अपने आप में एक बहुत बड़ा औषधीय गुण रखता है। भारतीय सनातन में स्नान में बड़ा महत्व माना गया है। समुद्र को महातीर्थ स्नान कहा गया और समुद्र स्नान के पश्चात त्रिवेणी संगम स्नान का सर्वोच्च स्थान है। सभी अखाड़ों के अलग-अलग स्नान माने गए हैं लेकिन स्नान के क्रम को बार-बार परिवर्तित किया जाता है।

वहीं, व्यवस्था की बात करें तो कुंभ का आयोजन भिन्न-भिन्न तरीके से होता है। समय के अनुसार इसका रूप परिवर्तन होता रहता है, लेकिन जो अखाड़े की व्यवस्था है वह पूर्ण रूप से सुनियोजित रहती है। उनके जो स्थान रहते हैं वह निश्चित हैं। उनका प्रारूप भी निश्चित है। महाकुंभ में जूना अखाड़े के 6 लाख नागा साधुओं के पहुंचने की उम्मीद है।

कुंभ में और क्या बेहतर किया जाता हैं या किन बातों का ध्यान महाकुंभ के दौरान रखना चाहिए। इस पर महामंडलेश्वर शैलेषानंद गिरी का मानना है कि कुंभ के दौरान देशाटन, तीर्थाटन और पर्यटन पर खास ध्यान देना चाहिए। यह तीनों चीजें अलग महत्व रखती हैं। देशाटन किसी स्थान के साहित्य और वहां के ज्ञान को अर्जित करने के लिए किया जाता है। तीर्थाटन में अध्ययन से अधिक साधना का भाव होता है। वहीं कुछ स्थान ऐसे हैं, जहां पर हम शांति और मनोरंजन के लिए जाते हैं। ऐसे में महाकुंभ में इन तीनों पर चिंतन होना चाहिए।

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