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जब सूर्यदेव ने असुर को दिया अपना पुत्र बनने का वरदान, जानिए छठ व्रत से जुड़ी कर्ण की कहानी

When Suryadev blessed the demon to become his son, know the story of Karna related to Chhath fast.

छठ पूजा विशेष रूप से बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में मनाई जाती है। यह पर्व सूर्य देव और छठी मैया की पूजा के लिए प्रसिद्ध है। इसी पावन परंपरा का आधार महाभारत के अद्भुत पात्र सूर्यपुत्र कर्ण यानी अंगराज कर्ण से भी जुड़ा हुआ है।

चार दिनों तक चलने वाले इस छठ पूजा में व्रती निर्जल उपवास रखते हैं। कहते हैं कि इस पूजा से व्यक्ति के पाप दूर होते हैं, परिवार में सुख-समृद्धि आती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं।महाभारत में कर्ण को महान योद्धाओं में से एक माना गया है, जिनकी बहादुरी, दानवीरता और धर्म के प्रति आस्था आज भी लोगों के लिए प्रेरणा है।

कर्ण सूर्यदेव के पुत्र थे, जिन्हें माता कुंती ने सूर्य मंत्र के जाप से जन्म दिया था। सामाजिक दबाव के कारण कुंती ने कर्ण को नदी में बहा दिया। नदी में बहता यह बच्चा राधा-अधिरथ दंपति को मिला, जिन्होंने उसे पाला। बालक कर्ण में सूर्य देव का आशीर्वाद और दिव्यता स्पष्ट रूप से झलकती थी। उनका पूर्वजन्म भी सूर्य देव के प्रति समर्पित था।

कहा जाता है कि पूर्वजन्म में कर्ण दंभोद्भवा नामक असुर थे, जिसे सूर्य देव ने 1000 कवच और दिव्य कुंडल दिए थे, जो उसे असाधारण सुरक्षा प्रदान करते थे। वरदान के कारण वह असुर अपने को अजेय-अमर समझकर अत्याचारी हो गया था। नर और नारायण ने बारी-बारी से तपस्या करके दंभोद्भवा के 999 कवच तोड़ दिए और जब एक कवच बच गया तो असुर सूर्य लोक में जाकर छुप गया। सूर्य देव ने उनकी भक्ति देखकर अगले जन्म में उन्हें अपना पुत्र बनने का वरदान दिया।

जब कर्ण बड़े हुए, तब उनकी मित्रता दुर्योधन से हुई। दुर्योधन ने उन्हें अंग देश का राजा बनाया। अंग देश का क्षेत्र वर्तमान बिहार के भागलपुर और मुंगेर के आसपास था। यही वह जगह थी, जहां कर्ण ने पहली बार छठ पूजा होते देखी।

यह पूजा सूर्य देव और छठी मैया को अर्घ्य देने की थी। कर्ण सूर्यपुत्र थे, इसलिए उन्होंने रोज सुबह सूर्य नमस्कार और सूर्य को अर्घ्य देना शुरू किया। छठ पूजा का महत्व समझकर उन्होंने इसे नियमित रूप से करना शुरू किया। वह न केवल सूर्य देव की पूजा करते थे, बल्कि छठी मैया की स्तुति भी करते थे।

इस प्रकार महाभारत काल में अंगराज कर्ण के माध्यम से छठ पूजा की परंपरा को बिहार और पूर्वांचल में स्थायी रूप मिला।

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