N1Live National जब कलम से निकले शब्द किन्नरों के दर्द से ‘स्याह’ हो पन्नों पर उभरे, साहित्य के सूरमा भी कराह उठे
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जब कलम से निकले शब्द किन्नरों के दर्द से ‘स्याह’ हो पन्नों पर उभरे, साहित्य के सूरमा भी कराह उठे

When the words that came out of the pen appeared on the pages 'blackened' with the pain of eunuchs, even the heroes of literature groaned.

नई दिल्ली, 10 सितंबर। समाज को साहित्य और साहित्य को समाज कैसे एक-दूसरे से जोड़ता है और कैसे एक-दूसरे के बीच यह सामंजस्य बिठाता है। यह साहित्यिक रचनाओं से साफ पता किया जा सकता है। समाज में समानता-असमानता, उतार-चढ़ाव, हानि-साभ, जीवन-मरण, अपना-पराया, स्त्री-पुरुष, अच्छा-बुरा सबके चित्रण का सबसे सशक्त जरिया अगर कुछ है तो वह साहित्य है। लेकिन साहित्य के शब्द इन दो विपरीतार्थक शब्दों के कोष से निकलकर किसी तीसरे शब्द के लिए कलम के जरिए पन्नों पर उतरते हैं तो उसका एक अलग ही मिशन होता है। ऐसा ही एक साहित्य रचा गया चित्रा मुद्गल की कलम से, कालजयी इस साहित्यिक रचना का नाम रखा गया ‘पोस्ट बॉक्स नंबर-203 नाला सोपारा’।

‘पोस्ट बॉक्स नंबर-203 नाला सोपारा’ अजीब से इस नाम वाली किताब ने आते ही ऐसा तहलका मचाया कि पूछना ही क्या। किताब के नाम से साफ जाहिर था कि एक बार फिर महानगरीय विविधताओं पर रची बची एक साहित्यिक कथा की शुरुआत हुई होगी लेकिन, पाठकों ने जैसे ही इस पुस्तक के विषय को पढ़ा वह भौंचक्के रह गए। पोस्ट बॉक्स का मतलब ही होता है जब कोई संगठन, संस्था या कोई अन्य अपनी पहचान छुपा ले। यानी पोस्ट बॉक्स का उपयोग किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया जाता है। तो अब आप समझ गए होंगे कि यह समाज के एक ऐसे वर्ग के इर्द-गिर्द बुनी हुई कहानी थी जिसे समाज का कोई भी तबका स्वीकार करने को तैयार नहीं था। यह समाज खुद अपनी पहचान छुपाने में यकीन करता है। लेकिन, हाय रे पेट की मजबूरी कि उन्हें समाज में इसकी खातिर तमाम द्वंद्व से गुजरना होता है।

हाशिए पर खड़े लोगों के दर्द को अपनी कलम की स्याही से जब पन्नों पर चित्रा मुद्गल ने उतारा तो यह स्याह रंग इतना गहरा था कि समाज का हर वर्ग इसे महसूस कर पा रहा था। किन्नर समाज का वह हिस्सा जो आज भी अपने आप को स्थापित करने की जद्दोजहद में लगा है। उसके जीवन को इतने प्रभावी तरीके से शायद ही किसी रचनाकार ने प्रस्तुत किया हो।

कहानी लिखी भी चित्रा मुद्गल ने बहुत कोशिशों के बाद। क्योंकि वह किन्नरों के दर्द को समझ पाने में कामयाब रही थीं। नहीं, तो शायद ही उनकी कल्पना के इतने प्रतिबिंब गढ़ पाती। समाज के सामने उन्होंने सवाल भी तो रखे थे कि हम नंगे बच्चे को, दिव्यांग को, पागल बच्चे को घर में रख सकते हैं तो फिर आखिर किन्नर पैदा हो जाए उसमें इतना अलग क्या है कि हम ऐसे बच्चे को घर से निकाल देते हैं?

यह वही चित्रा मुद्गल हैं जिन्होंने समाज में ‘नटकौरा’ यानी नाक कटाकर स्वांग करने वालों के खिलाफ और इस पितृ सत्तात्मक समाज के खिलाफ भी आवाज बुलंद की और इसका माध्यम उन्होंने ‘नटकौरा’ को बनाया।

चित्रा मुद्गल की कलम समाज के ऐसे ही वंचित तबकों की आवाज बना। वह केवल कलम से ही तो क्रांति नहीं लिख रही थी उनके जीवन भी क्रांति का ही सार रहा है। ठाकुर कुल में पैदा हुई चित्रा मुद्गल ने साहित्य में रुचि रखने वाले अवधनारायण मुद्गल को अपने जीवनसाथी के रूप में चुना जो जाति से ब्राह्मण थे। चित्रा के पिता और घर वाले उनके इस रिश्ते से सहमत नहीं थे। फिर क्या था जिनकी कलम क्रांति लिख रही हो उन्होंने खुद ही क्रांति का बिगुल बजाया और अपना घर छोड़ दिया।

चित्रा मुद्गल का जन्म भले तमिलनाडु में हुआ हो लेकिन उनका परिवार यूपी के उन्नाव जिले से संबंध रखता है। तेरह कहानी संग्रह, तीन से ज्यादा उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें उनकी कलमों ने रच डाले। उन्हें फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ सम्मान, साहित्यकार सम्मान, यूके कथा सम्मान, साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान, इंदु शर्मा कथा सम्मान, साहित्य भूषण, वीर सिंह देव सम्मान जैसे कई सम्मानों से सम्मानित किया गया है।

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