N1Live National साहित्य जगत के ‘क्रांतिकारी’ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, सामाजिक यथार्थ से रहा गजब का जुड़ाव
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साहित्य जगत के ‘क्रांतिकारी’ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई, सामाजिक यथार्थ से रहा गजब का जुड़ाव

Harishankar Parsai, the 'revolutionary' satirist of the literary world, had an amazing connection with social reality.

नई दिल्ली, 10 अगस्त । हरिशंकर परसाई अपनी सीधी और तीखी लेखन शैली के कारण व्यंग्य जगत के ‘क्रांतिदूत’ के तौर पर पहचाने जाते हैं। बतौर लेखक उन्होंने व्यंग्य को एक ‘सम्मानजनक और विशिष्ट’ साहित्यिक शैली के रूप में स्थापित किया, जो आज की पीढ़ी के लिए अमूल्य और अमिट धरोहर है।

10 अगस्त 1995 को ये रचनाकर अपनी थाती हमें सौंप दुनिया से विदा हो गए। रचनाएं ऐसी जो सरल भाषा में सामाजिक सरोकारों को टटोलती ही नहीं उन्हे साधती भी थी। यही वजह है कि उन्होंने साहित्यिक जगत में लोकप्रियता के शिखर को छुआ। उनकी लेखन शैली में समाज की समझ प्रतिबिंबित होती थी। भाषा और शैली ऐसी थी कि पाठक को ऐसा लगता था मानो लेखक सीधे उनसे बात कर रहा है।

सृजनात्मक और व्यंग्यात्मक साहित्य के शिल्पी हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के इटारसी के पास जामनिया गांव में हुआ था। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया था। शिक्षा पूरी करने के बाद लेखन को ही अपना पूर्णकालिक पेशा बना लिया।

वे मध्य प्रदेश के जबलपुर से वसुधा नामक साहित्यिक पत्रिका निकालने लगे, जो बाद में उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुई। लेकिन भविष्य में आर्थिक घाटे के कारण उन्हें पत्रिका बंद करनी पड़ा। यह पत्रिका भारत में आपातकाल के दौरान संचालित होती थी और तत्कालीन परिस्थितियों के मद्देनजर सामाजिक विमर्श पर करारा चोट करती थी।

उनकी पहली प्रकाशित रचना ‘दूसरों की चमक-दमक’ थी, जो ‘प्रहरी’ में 23 नवम्बर 1947 को प्रकाशित हुई। कृति ‘उदार’ नाम से छपी। आजादी के लगभग तीन महीने बाद परसाई के लेखन का शुभारम्भ हुआ।

उन्होंने अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के पाखंड, दोहरे मानदंडों और भ्रष्टाचार को उजागर किया। उनके व्यंग्य ने पाठकों को उत्तेजित नहीं किया बल्कि वास्तविकता से रूबरू कराया, बिना इस बात की परवाह किए कि सत्य कितना अप्रिय है। इसकी मूल वजह यह है कि वे यथार्थवादी थे। उन्होंने देशवासियों को सत्य का आईना दिखाने का काम किया। सत्ता प्रतिष्ठानों के कुशासन और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ परसाई जी का व्‍यंग्‍य सामाजिक परिवर्तन की मुनादी माना जाता था।

हरिशंकर परसाई रायपुर और जबलपुर प्रेस से प्रकाशित एक हिंदी समाचार पत्र देशबंधु के लिए “पूछिए परसाई से” कॉलम में पाठकों के सवालों के जवाब देते थे। उनकी उपन्यास कृतियों में रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल शामिल है। वहीं उनके कहानी संग्रह में हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे पाठकों को बांध कर रखता है।

कहानीकार के साथ व्यंग्यकार के रुप में उन्होंने एक समृद्ध साहित्यिक संपदा का पुष्प पल्लवित किया। तब की बात और थी, भूत के पांव पीछे, बेईमानी की परत, वैष्णव की फिसलन, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, प्रेमचंद के फटे जूते, आवारा भीड़ के खतरे, सदाचार का ताबीज, अपनी अपनी बीमारी, दो नाक वाले लोग, काग भगोड़ा, माटी कहे कुम्हार से, ऐसा भी सोचा जाता है, विकलांग श्रद्धा का दौर, तिरछी रेखाएं और हम एक उम्र से वाकिफ हैं, जाने पहचाने लोग उनके व्यंग्य निबंध का विपुल संग्रह है।

उन्होंने व्यंग्य निबंधों के अलावा लघु कथाएं भी लिखी। उनकी लघु कथा ‘भोलाराम का जीव’ पर सफलतापूर्वक नाटक बनाया गया और पूरे देश में इसका व्यापक मंचन किया गया।

महान सफलता प्राप्त व्यंग्यकार 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में इस दुनिया से विदा हो गए। 1982 में उन्हें उनके व्यंग्य “विकलांग श्रद्धा का दौर” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनके निधन के कुछ साल बाद सरकारी प्रसारण चैनल दूरदर्शन ने ‘परसाई कहते हैं’ नामक शो चलाया, जिसमें उनके साहित्यिक योगदान से जुड़े एपिसोड प्रसारित किए गए।

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